Atmadharma magazine - Ank 317
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: ४० : आत्मधर्म : फागण : २४९६
,
जे नर–नारकादि पर्यायभेदो छे ते व्यवहारजीव छे, परमार्थ जीव तेवो नथी;
परमार्थजीव एकरूप ज्ञानस्वभाव छे. व्यवहारजीव एटले पर्यायना भेद जेटलो जीव ते
आखुं जीवतत्त्व नथी. तेथी ते व्यवहारथी जीवतत्त्व छे, ते अभूतार्थ छे, ने एटलो ज
जीव अनुभवतां सम्यग्दर्शन थतुं नथी. सम्यग्दर्शन कहो के सुखनी प्राप्ति कहो, तेमां जे
जीव अनुभवाय छे ते ज्ञायकस्वभावरूप शुद्ध छे. व्यवहाररूप जे नर–नारकादि पर्यायो,
तेनाथी जुदो ज्ञायकभाव छे.
अजीवथी जुदो, बीजा जीवोथी पण आ जीव जुदो; पुण्य अने पापतत्त्वथी पण
ज्ञायकस्वरूप जीव जुदो छे. लोको पुण्यने धर्म अने मोक्षनुं कारण मानी ल्ये छे, पण धर्मी
तो जाणे छे के पुण्य ते मारुं स्वरूप नथी; पुण्यथी भिन्न स्वरूपे धर्मी पोताने अनुभवे
छे. पुण्य–पाप ते क्षणिक–विकृतभाव छे. अने संवर–निर्जरा–मोक्षरूप निर्मळ पर्यायना
भेदो छे तेटलुं पण जीवनुं स्वरूप नथी. जीव तो अनंत ज्ञानस्वभावथी भरेलो एकरूप
ध्रुव ज्ञायकभाव छे. धर्मी जीव पोताने केवो अनुभवे छे.
एकरूप ज्ञायकतत्त्व छे ते नवतत्त्वना पर्यायना भेदरूप नथी, एटले व्यवहार–
नवतत्त्वोरूप नथी, व्यवहारिक नवतत्त्वोथी ते तद्न जुदो छे, एकरूप छे, तेथी शुद्ध छे.
आवा शुद्ध आत्मानो अनुभव ते सम्यग्दर्शन छे, ते मोक्षनो प्रथम उपाय छे.
ता. २२–७–७० नारोज अमदावाद पधारतां स्वागतपूर्वक जिनमंदिर आव्या,
आदिनाथ भगवाननी अत्यंत मनोज्ञ अने गुजरातनी सौथी मोटी वीतरागप्रतिमानां
दर्शन कर्या, अने पछी हजार माणसथी भरपूर मंदिरना विशाळ होलमां मंगलप्रवचन
करतां गुरुदेवे कह्युं के–
अरिहंत भगवान मंगळ छे, केमके ते शुद्ध आत्मा छे. आवा अरिहंतपरमात्मानुं
ध्यान करतां आत्माने शो लाभ? तो कहे छे के परमार्थे आ आत्मा पोते अरिहंतस्वरूप
छे, जेवुं अरिहंतनुं स्वरूप छे तेवुं ज आ आत्मानुं स्वरूप छे. आत्माना स्वभावमां
अरिहंतपणुं शक्तिपणे विद्यमान छे, ते सत्य छे, तेथी तेना ध्यानवडे जे आनंद आवे छे
ते सत्य छे. परमात्मानुं ध्यान कांई निष्फळ नथी; आत्माना परम स्वभावमां एकाग्र
थईने परमात्मस्वरूपे तेने ध्यावतां आत्मरसनो स्वाद आवे छे, निजरसनो स्वाद
आवे छे, आनंदनो अनुभव थाय छे आत्मानी शांति–आनंदनो रस ध्यानमां प्रगटे छे
तेथी ते सफळ छे.(अनुसंधान पृष्ठ ४४ उपर)