
परमार्थजीव एकरूप ज्ञानस्वभाव छे. व्यवहारजीव एटले पर्यायना भेद जेटलो जीव ते
आखुं जीवतत्त्व नथी. तेथी ते व्यवहारथी जीवतत्त्व छे, ते अभूतार्थ छे, ने एटलो ज
जीव अनुभवतां सम्यग्दर्शन थतुं नथी. सम्यग्दर्शन कहो के सुखनी प्राप्ति कहो, तेमां जे
जीव अनुभवाय छे ते ज्ञायकस्वभावरूप शुद्ध छे. व्यवहाररूप जे नर–नारकादि पर्यायो,
तेनाथी जुदो ज्ञायकभाव छे.
तो जाणे छे के पुण्य ते मारुं स्वरूप नथी; पुण्यथी भिन्न स्वरूपे धर्मी पोताने अनुभवे
छे. पुण्य–पाप ते क्षणिक–विकृतभाव छे. अने संवर–निर्जरा–मोक्षरूप निर्मळ पर्यायना
भेदो छे तेटलुं पण जीवनुं स्वरूप नथी. जीव तो अनंत ज्ञानस्वभावथी भरेलो एकरूप
ध्रुव ज्ञायकभाव छे. धर्मी जीव पोताने केवो अनुभवे छे.
आवा शुद्ध आत्मानो अनुभव ते सम्यग्दर्शन छे, ते मोक्षनो प्रथम उपाय छे.
दर्शन कर्या, अने पछी हजार माणसथी भरपूर मंदिरना विशाळ होलमां मंगलप्रवचन
करतां गुरुदेवे कह्युं के–
छे, जेवुं अरिहंतनुं स्वरूप छे तेवुं ज आ आत्मानुं स्वरूप छे. आत्माना स्वभावमां
अरिहंतपणुं शक्तिपणे विद्यमान छे, ते सत्य छे, तेथी तेना ध्यानवडे जे आनंद आवे छे
ते सत्य छे. परमात्मानुं ध्यान कांई निष्फळ नथी; आत्माना परम स्वभावमां एकाग्र
थईने परमात्मस्वरूपे तेने ध्यावतां आत्मरसनो स्वाद आवे छे, निजरसनो स्वाद
आवे छे, आनंदनो अनुभव थाय छे आत्मानी शांति–आनंदनो रस ध्यानमां प्रगटे छे
तेथी ते सफळ छे.(अनुसंधान पृष्ठ ४४ उपर)