Atmadharma magazine - Ank 317
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: फागण: २४९६ आत्मधर्म : ४१ :
(अनुसंधान पृष्ठ २ थी चालु )
प्रभु! तारो असंख्यप्रदेशी आत्मा अनंत गुणनी संपदानुं धाम छे. पुण्य–पाप के
बहारना संयोग ए कांई तारी संपदा नथी. तारी संपदा तारा आत्मामां ज्ञान–
आनंदथी परिपूर्ण छे. तेनुं भान करतां भवनो अंत आवे छे. वीतरागी सन्त कहे छे
भवना अंतनी वात! अहा! आत्मा तो अतीन्द्रिय आनंदनो फूवारो छे.
सम्यग्दर्शन केम थाय? के चिदानंदप्रभु आत्मा छे तेमां द्रष्टि प्रसरतां सम्यग्दर्शन
थाय छे. पुण्य–पापना भावोनो अनुभव आकुळतारूप ने मलिनरूप छे, तेमां
सम्यग्दर्शन नथी, ने तेनाथी भवनो अंत आवतो नथी.
भगवान आत्मा परना अवलंबन वगरनो निरालंबी छे. अंतरीक्ष एटले
आकाशमां बिराजमान निरालंबी आत्मा छे. अहीं भगवान पार्श्वनाथने अंतरीक्ष
कहेवाय छे; तीर्थंकरभगवान समवसरणमां सिंहासन उपर चार आंगळ ऊंचे बिराजे
छे, सिंहासननुं आलंबन तेमने नथी. जेम आत्मानो स्वभाव रागना अवलंबन
वगरनो छे तेम सर्वज्ञप्रद प्रगटतां शरीर पण निरालंबी एटले के अंतरीक्ष थई जाय
छे. रागना अवलंबनथी लाभ माने ते निरालंबी भगवानने ओळखतो नथी. अहा,
चैतन्यनो सहज स्वभाव, तेमां गुणगुणीभेदना विकल्पनुं पण आलंबन नथी. राग
अने आत्मानी भिन्नता जाणीने चैतन्यस्वरूपने अनुभवमां लेवुं तेनुं नाम
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे.
मोक्षनो मार्ग रत्नत्रय छे; तेमां पण सम्यग्दर्शन मूळ छे. ते सम्यग्दर्शन माटे
पहेलां उद्यम करवो जोईए. सम्यग्दर्शन थवानी रीत बतावतां प्रवचनसारमां आचार्य–
कुंदकुंदस्वामी कहे छे के–अरिहंत देवना शुद्ध द्रव्य–गुण–पर्यायने जाणतां आ आत्मानुं
शुद्ध स्वरूप पण ओळखाय छे, केमके परमार्थे आ आत्मानुं स्वरूप पण अरिहंत जेवुं ज
छे. आ रीते शुद्ध आत्माने ओळखतां सम्यक्त्व थाय छे ने मोह नाश पामे छे.
आत्माना द्रव्य–गुण–पर्यायनुं यथार्थ ज्ञान करीने पछी, चेतन पर्यायने अने
गुणने ध्रुवद्रव्यमां अंतर्मग्न करीने शुद्ध वस्तुनो अभेद अनुभव करतां मोहनो नाश थाय
छे ने सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. पर्यायने द्रव्य साथे अभेद करे छे, एटले वच्चे मोह
रही शक्तो नथी. जेम शरीरना अंगरूप आंगळीवडे आखा शरीरनो स्पर्श थाय छे, तेम
आत्माना अंगरूप जे ज्ञानपर्याय, ते ज्ञानपर्याय वडे आखा आत्मानुं