
आनंदथी परिपूर्ण छे. तेनुं भान करतां भवनो अंत आवे छे. वीतरागी सन्त कहे छे
भवना अंतनी वात! अहा! आत्मा तो अतीन्द्रिय आनंदनो फूवारो छे.
सम्यग्दर्शन नथी, ने तेनाथी भवनो अंत आवतो नथी.
कहेवाय छे; तीर्थंकरभगवान समवसरणमां सिंहासन उपर चार आंगळ ऊंचे बिराजे
छे, सिंहासननुं आलंबन तेमने नथी. जेम आत्मानो स्वभाव रागना अवलंबन
वगरनो छे तेम सर्वज्ञप्रद प्रगटतां शरीर पण निरालंबी एटले के अंतरीक्ष थई जाय
छे. रागना अवलंबनथी लाभ माने ते निरालंबी भगवानने ओळखतो नथी. अहा,
चैतन्यनो सहज स्वभाव, तेमां गुणगुणीभेदना विकल्पनुं पण आलंबन नथी. राग
अने आत्मानी भिन्नता जाणीने चैतन्यस्वरूपने अनुभवमां लेवुं तेनुं नाम
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे.
कुंदकुंदस्वामी कहे छे के–अरिहंत देवना शुद्ध द्रव्य–गुण–पर्यायने जाणतां आ आत्मानुं
शुद्ध स्वरूप पण ओळखाय छे, केमके परमार्थे आ आत्मानुं स्वरूप पण अरिहंत जेवुं ज
छे. आ रीते शुद्ध आत्माने ओळखतां सम्यक्त्व थाय छे ने मोह नाश पामे छे.
छे ने सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. पर्यायने द्रव्य साथे अभेद करे छे, एटले वच्चे मोह
रही शक्तो नथी. जेम शरीरना अंगरूप आंगळीवडे आखा शरीरनो स्पर्श थाय छे, तेम
आत्माना अंगरूप जे ज्ञानपर्याय, ते ज्ञानपर्याय वडे आखा आत्मानुं