: ४२ : आत्मधर्म : फागण : २४९६
ज्ञान थाय छे. शरीर ते कांई आत्मनुं अंग नथी, रागद्वेष पण खरेखर आत्मानुं अंग
नथी, ज्ञानादि अनंत गुणो ने तेनी पर्यायो ते आत्माना अंगो छे. ते अवस्थाने
अंतरमां ध्रुव साथे लगाववाथी आनंदकंद आत्मानुं ज्ञान थाय छे. आ रीते शुद्धतारूपे
परिणम्यो त्यारे शुद्ध आत्मानी उपासना थई एटले मोक्षमार्ग थयो. आ रीते पोताना
द्रव्यगुणपर्यायना ज्ञान वडे मोक्षमार्ग थाय छे.
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अंतरीक्ष एटले नीरालंबी आत्मभगवान,
तेनी प्रतिष्ठा रागमां थई शके नहीं.
शिरपूर–महाराष्ट्र (अंतरीक्ष–पार्श्वनाथ)मां पंचकल्याणक–
प्रतिष्ठा–महोत्सव प्रसंगे पू. श्री कानजीस्वामीनां प्रवचनोमांथी.
(समयसार संवर अधिकार)
भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, ते ज्ञानरूपे पोताने अनुभववो ते मोक्षनुं ने
आनंदनुं कारण छे. ज्ञानभाव प्रगट्यो त्यां आत्माने कर्मनो आस्रव के बंध थतो नथी.
आवुं ज्ञान केम प्रगटे, एटले के संवररूप मोक्षमार्ग केम थाय ते वात अलौकिक रीते
आचार्यदेव आ समयसारमां समजावे छे.
आत्मा उपयोगस्वरूप छे. उपयोगने अने आत्माने एकपणुं छे, पण उपयोगने
अने क्रोधने एकपणुं नथी. उपयोगमां उपयोग छे, क्रोधमां–कर्ममां के शरीरमां उपयोग
नथी; तेम ते क्रोधादिमां क्रोधादि छे, उपयोगमां क्रोधादि नथी. आ रीते उपयोगस्वरूप
आत्मा, अने क्रोधादिस्वरूप अनात्मा, ते बंनेनी भिन्नतानुं यथार्थ भेदज्ञान थाय त्यारे
जीव पोताने उपयोगस्वरूपे ज अनुभवे छे. क्रोधादि परभावोने पोताथी भिन्न जाणे छे
एटले तेनो ते जरापण कर्ता थतो नथी, तेमां जराय तन्मय थतो नथी. आवुं सम्यक्
भेदज्ञान ते अभिनंदनीय छे, ते मोक्षनुं कारण होवाथी प्रशंसनीय छे. आचार्यदेव कहे छे
के अहो! आवुं निर्मळ भेदज्ञान जीवने आनंद पमाडतुं थकुं प्रगट थयुं छे, माटे हवे
परभावोने छोडीने आनंदमय विज्ञानघन आत्मामां ज एकाग्र थाओ. आ धार्मिक क्रिया
छे, आ मोक्षनी क्रिया छे.