Atmadharma magazine - Ank 317
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: फागण: २४९६ आत्मधर्म : ४३ :
आत्मा ज्ञान ने आनंदस्वरूप छे; आत्मा पुण्य–पाप के रागस्वरूप नथी. ज्ञानने
ते रागादि अन्य वस्तुओ साथे जरापण संबंध नथी. जेम जड अने चेतनने जरापण
संबंध नथी, अत्यंत जुदाई छे, तेम रागने अने ज्ञानने जरापण संबंध नथी, अत्यंत
जुदाई छे, बंनेनुं स्वरूप एकबीजाथी विपरीत, तद्न जुदुं छे. राग वगरना आवा
ज्ञाननो अनुभव करवो ते संवरधर्म छे. भगवान आत्मा रागना अवलंबन वगरनो
‘अंतरीक्ष’ छे; तेनी आ प्रतिष्ठा थई रही छे. अहो, आवा आत्मानी वात दिगंबर
संतोए ज करी छे. दिगंबर जैनधर्म सिवाय बीजे क्यांय आवा भेदज्ञाननुं यथार्थ
स्वरूप छे ज नहीं.
दरेक आत्माना स्वभावमां सर्वज्ञपद विद्यमान छे, ते पर्यायमां केम प्रगटे तेनी
आ वात छे. सर्वज्ञनो आत्मा जेम रागथी जुदो थई गयो छे तेम दरेक आत्मानो
ज्ञानस्वभाव रागथी जुदो छे. आवो स्वभाव बतावनारूं जे आ समयसार महान
शास्त्र, तेना लखीतंग कुंदकुंदाचार्यदेव, अने साक्षी सर्वज्ञ परमात्मानी; रचवानुं स्थान
पोन्नूरदेश. तेमां रागथी भिन्न ज्ञानस्वरूप आत्मानो अनुभव कराव्यो छे. जेवो
चैतन्यभाव ज्ञानमां छे तेवो चैतन्यभाव रागमां नथी, माटे ज्ञान अने राग बंने
भिन्नभिन्न जातना छे. अरे, राग ज्यां चैतन्यनी जात ज नथी त्यां रागथी धर्म थवानी
वात केवी? चैतन्यथी विरुद्ध एवा अचेतनभावने आत्मानुं स्वरूप माने तेणे आत्माने
जाण्यो नथी, तेने ज्ञान अने रागनुं भेदज्ञान नथी. कारंजानो नववर्षनो बाळक
(प्रदीप) पण एना पोताना उघाडथी कहेतो हतो के पुण्य ते मोक्षमें जानेके लिये
उपयोगी नही है. पुण्यने अने ज्ञानने एकबीजा साथे आधारआधेयपणुं नथी.
सम्यक्त्वादि निर्मळ पर्यायो रागना–पुण्यना आधारे उत्पन्न थती नथी पण आत्माना
ज आधारे उत्पन्न थाय छे. अने पुण्य वगेरे रागभावनी उत्पत्ति थती नथी पण
आत्माना ज आधारे उत्पन्न थाय छे. अने पुण्य वगेरे रागभावनी उत्पत्ति ज्ञानना
आधारे थती नथी पण अचेतनना आधारे तेनी उत्पत्ति थाय छे. आ रीते ज्ञान अने
रागनी अत्यंत भिन्नता छे. आवी भिन्नता जाणीने भेदज्ञान करवुं ते धर्म छे.
जिनवाणी वीतरागभावनी ज पोषक छे, रागथी ते भिन्नता करावनारी छे, ते
रागनी पोषक नथी. आवी वीतरागतापोषक जिनवाणी गणधरो अने ईन्द्रो पण
आदरपूर्वक झीले छे. रागने आदरवा जेवो माने तेने जिनवाणीनी खबर नथी.
जिनवाणीए ज्ञानक्रियाने ज आत्मानी क्रिया बतावी छे; क्रोधादि क्रिया के शरीरनी
जडक्रिया ते कांई आत्मानी क्रिया नथी. बहु सारी वाणी बोलतां आवडे के घणा