Atmadharma magazine - Ank 317
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: ४४ : आत्मधर्म : फागण : २४९६
विकल्प करतां आवडे ते क्रियाना आधारे कांई धर्मनी क्रिया नथी. अने ज्ञानभावरूप
आत्मानी जे धर्मक्रिया छे ते क्रियाना आधारे कांई वचन के विकल्प नथी. अहो!
भगवाने कहेली धर्मक्रिया अलौकिक छे; लोकोने ते धर्मक्रियानी खबर नथी. समयसारमां
आचार्यदेवे ते धर्मक्रिया समजावी छे. आत्मानी आ धर्मक्रिया आत्माना ध्रुवस्वभावथी
अभिन्न छे; वीतरागीपर्याय ते त्रिकाळी वीतरागस्वभावथी अभिन्न छे, तेथी ते ज
आत्मानी साची क्रिया छे.
आत्माना स्वभावनी सन्मुख थयेला ज्ञाननी जे क्रिया छे ते ज धर्मनी क्रिया छे;
ते क्रियामां रागनो सर्वथा अभाव छे. आत्मा आवी ज्ञानक्रियामां प्रकाशे छे, पण
रागक्रियामां आत्मा प्रकाशतो नथी. पोताना ज्ञानमां, श्रद्धामां आवा आत्मस्वरूपने
स्थापवुं ते जिनभगवाननी परमार्थ प्रतिष्ठा छे. तेना प्रतिबिंबरूप जिनभगवाननी
प्रतिष्ठा आजे अहीं जिनमंदिरमां थाय छे. आत्माने क्यां बिराजमान करवो? के
अंतरनी पोतानी ज्ञानक्रियामां ज आत्माने बिराजमान करवो. ज्ञानक्रिया ते ज
चैतन्यभगवाननी प्रतिष्ठा करवानुं सिंहासन छे, रागक्रियामां चेतनभगवानने स्थापवा
मांगे तो चेतनभगवान तेमां नहीं बेसे, रागमां चैतन्यस्वरूप आत्मानी प्राप्ति नहीं
थाय, ज्ञानने अंतर्मुख करतां ते ज्ञाननी क्रियामां ज चैतन्यस्वरूप आत्मानी प्राप्ति थाय
छे. जेणे आवो अनुभव कर्यो तेणे पोताना अंतरमां सर्वज्ञभगवाननी साची प्रतिष्ठा
करी के ‘हुं ज सर्वज्ञस्वभावी भगवान छुं.’–आवी स्थापना करी ते पोते अल्पकाळमां
साक्षात् सर्वज्ञपरमात्मा थई जशे.
* * * * * *
(अनुसंधान पृष्ठ ४० थी चालु)
अरिहंतपणुं तो नथी छतां तेनुं ध्यान केम करो छो? तो कहे छे के–ना, शक्तिमां
अरिहंतपणुं विद्यमान छे. अरिहंतना द्रव्य–गुण–पर्यायने जाणतां आत्मानुं शुद्धस्वरूप
जणाय छे ने तेने जाणतां–ध्यावतां मोहनो नाश थईने आनंदनो अनुभव थाय छे.
अमे एम ने एम कल्पित ध्यान नथी करता, पण आत्मामां परमात्मपदनी जे शक्ति
विद्यमान सत् छे तेने ओळखीने तेनुं ध्यान करीए छीए, ते जो मिथ्या होय तो आनंद
केम आवे? पर्यायमां भले अरिहंतपणुं प्रगट न होय पण स्वभावनी शक्तिमां
अरिहंतपद पड्युं छे, तेना ध्यानवडे पर्यायमां अरिहंत थवाना छीए–एवी निःशंकताथी
जे आनंद अनुभवाय छे ते मांगळिक छे.