: फागण: २४९६ आत्मधर्म : ४७ :
जेम लौकिकमां धननी अभिलाषावाळो कोई जीव पहेलां तो राजाने ओळखे छे
अने श्रद्धा करे छे, के आ राजा छे अने तेनी सेवाथी मने धननो लाभ थशे; एम नक्की
करीने पछी ते राजानी सेवा करे छे तेम जे मुमुक्षु छे, मोक्षनो अभिलाषी छे ते जीवे
प्रथम तो चैतन्यलक्षणवडे आत्माने परभावोथी जुदो ओळखवो. आ चैतन्यस्वरूपपणे
जे अनुभवमां आवे छे ते चेतनराजा हुं छुं चेतनथी जुदा अन्य कोई भावो हुं नथी.
एम स्वानुभवपणे बराबर जाणीने तथा श्रद्धा करीने पछी तेमां उपयोगनी
एकाग्रतावडे तेनुं अनुसरण करवुं. आम करवाथी जरूर मोक्षनी प्राप्ति थाय छे.
राजगृहीना राजा श्रेणीक,–जे महावीर भगवानना वखतमां हता, तेमणे आवा
आत्मानी ओळखाण करी हती पहेलां अज्ञानदशामां मुनिनी विराधना करीने सातमी
नरकनुं आयुष्य बांध्युं हतुं, पण भगवाने कहेलुं आत्मानुं स्वरूप समजीने ते
सम्यग्दर्शन पाम्या, अने नरकनुं असंख्यवर्षनुं आयुष्य ओछुं करीने मात्र ८४०००
वर्षनुं रह्युं; ते अत्यारे पहेली रत्नप्रभा पृथ्वीमां छे, त्यां पण तेने आत्मानुं भान छे;
ने त्यांथी नीकळीने ८२प०० वर्ष पछी आ भरतक्षेत्रमां पहेला तीर्थंकर थशे.–कोनो
प्रताप? अंदरमां भिन्न आत्मानुं भान छे, सम्यग्दर्शन छे; तेना प्रतापे एक भवमां
मोक्ष पामशे.
ज्ञाननी क्रिया तो आत्मामां छे ने ते मोक्षनुं कारण छे. पण रागनी क्रिया मोक्षनुं
कारण नथी; अने देहादि जडवस्तुनी क्रिया तो आत्मामां छे ज नहीं. आ रीते जडथी
अने रागथी अत्यंत भिन्न एवी पोतानी ज्ञानक्रिया छे. आवुं भेदज्ञान करवाथी ज
सिद्धपद पमाय छे. अनंता जीवो सिद्ध थया तेओ भेदविज्ञान थी ज सिद्ध थया छे. माटे
आत्मानुं स्वरूप ओळखीने भेदज्ञान करवुं जोईए.
अरिहंतोनी आराधना
सर्वज्ञने ओळखवा माटे आत्मस्वभावनी सन्मुख थवुं
पडे छे. सर्वज्ञने केम ओळखवा तेनी पण अज्ञानीने खबर
नथी. भाई, सर्वज्ञ एटले तारो ज्ञानस्वभाव, सर्वज्ञने ते
व्यक्तरूप छे, तारामां ते शक्तिरूप छे; ते शक्तिनी सन्मुखता
वडे सर्वज्ञता व्यक्त थशे. माटे तारी शक्तिनी सन्मुख थईने
तेनी प्रतीत कर तो तने सर्वज्ञनी खरी प्रतीत थाय, तेनो