: फागण: २४९६ आत्मधर्म : ५१ :
आत्मानो सम्यक् स्वभाव चेतनरूप छे; ते स्वभावमां संयोग के परभावनो
प्रवेश थतो नथी. माटे हे जीवो! तमे मोह छोडीने आवा साचा स्वरूपनो अनुभव करो.
निजघर चैतन्यनिधानथी भरेलुं छे ते कदी जोयुं नहि, ने परघरने–परभावने ज पोतानुं
स्वरूप मानीने दुःखी थयो. अपनेको आप भूलके हैरान हो गया। पण अपनेको आप
जानकर आनन्दी हो गया।–माटे आत्मानुं साचुं स्वरूप शुं छे ते सांभळीने तेनी
समजण करवी ते अपूर्व चीज छे.
जीवने मनुष्यपणुं अने आत्माना साचा स्वरूपनुं श्रवण मळवुं ते अनंतकाळमां
दुर्लभ छे. दुर्लभ छतां ते अनंतवार मळी गयुं पण श्रद्धा परम दुर्लभ छे, आत्मानी साची
श्रद्धा जीवे कदी करी नथी; ते अपूर्व छे. एक सेकंड पण आत्मस्वरूपनी ओळखाण अने
साची श्रद्धा करे तो अल्पकाळमां मुक्ति थाय. संसारमां बीजुं बधुं तो सुलभ छे, पुण्य
सुलभ छे, स्वर्गनी प्राप्ति सुलभ छे, पण आनंदथी भरेलो शुद्ध चैतन्यस्वभाव–के जेमां
परभावनो प्रवेश नथी,–तेनी प्राप्ति, तेनो अनुभव, तेनी श्रद्धा ते अपूर्व कल्याणकारी
दुर्लभ चीज छे. अने पोतानी चीज पोतामां ज प्राप्त छे ते अपेक्षाए सुलभ छे.
जेम तेल पाणीमां प्रवेशतुं नथी पण उपर ज तरे छे, तेम चीकणा परभावो ते
स्वच्छ चैतन्यमां प्रवेशता नथी पण उपर ज रहे छे, भिन्न ज रहे छे. आवा भिन्न
आत्मानुं भान करवुं ते धर्मनी शरूआत छे. जेम सूत्र वगरनी सोय खोवाई जाय छे
तेम सूत्र वडे जेणे शुद्धआत्मा जाण्यो नथी ते जीव संसारमां खोवाई जाय छे. पण जेणे
भेदज्ञान करीने श्रुतज्ञानरूपी सूत्र आत्मामां परोवी दीधुं ते जीव संसारमां खोवातो
नथी, पण अल्पकाळमां राग–द्वेषनो नाश करीने मोक्ष पामे छे. माटे आवा
मनुष्यपणामां आत्माने ओळखवो ते कर्तव्य छे.
वीतराग सर्वज्ञदेव कहे छे के जेवो भगवान हुं छुं तेवो ज भगवान तुं छो; दरेक
आत्मामां भगवानपणुं भर्युं छे. सम्यग्द्रष्टि गृहस्थपणामां होय ते पण आवा आत्मानुं
भान करीने भगवान जेवा पोताना आत्माने अनुभवे छे. आवो अनुभव करवाथी ज
आत्मामां मोक्षमार्ग प्रगटे छे.
गुरुदेव एकवार चैतन्यनी धूनमां जाणे के आत्मिक वीणा वगाडता होय
तेम मधुर गूंजन करता हता के–
आनंदने अजवाळे रे........
आज मने अंतरमां भेटया भगवान.....!