
छे. चार दिगंबर जिनमंदिरो छे. स्वागत पछी प्रमिलाताई
काहूके कहे कबहूं न छूटे लोकलाज सब डारी...
आनंदने अमे ओळख्या, त्यारथी अमने तेनी लगनी लागी छे, ते लगनी हवे कदी
छूटे नहीं ज्ञानानंदस्वभावनी जे श्रद्धा थई ते कदी छूटे नहीं. हे नाथ! आत्मानी जे
खूमारी चडी, जे रंग लाग्यो ते कोई प्रसंगे कदी छूटे नहीं. आत्माना अनुभवनी कोई
अपूर्व खूमारी ज्ञानीने छे, आत्मानी लगनी आडे लोकलाज छोडी दीधी छे तेथी
लोकनी प्रतिकूळता हो तोपण, स्वभावना अनुभवनी खुमारी चडी ते चडी, तेमां हवे
भंग पडे नहीं ने बीजो रंग लागे नहीं. आत्मानी आवी रुचि–श्रद्धा–ओळखाण
करवी ते मंगळ छे.
भूलीने जे भ्रमणा करी छे तेने हवे तो छोडो. पर मारां, शरीरादिनां काम हुं करुं एवी
स्व–परनी एकताबुद्धिरूप अज्ञानने हवे तो छोडो. अरे जगतना जीवो! आ
चेतनस्वरूप आत्मा छे ते कदी अचेतन शरीर साथे एकमेक थतो नथी, त्रणेकाळे ते
जडथी जुदो ज छे. जड–चेतननी एकताबुद्धिनो जे भ्रम छे तेने हवे तो छोडो. अहो,
आत्माना रसिक जनोने रुचिकर एवुं ज्ञानस्वरूप छे, ते ज तमारुं स्वरूप छे, तेने
अनुभवमां लईने तेनो स्वाद ल्यो. चैतन्यरस ए ज साचो रस छे, तेना भान वगर
चारे गतिमां जीवे अनंत अवतार कर्या छे. तेनाथी हवे केम छूटाय–तेनी आ वात छे.