Atmadharma magazine - Ank 317
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: फागण: २४९६ आत्मधर्म : प :
‘समयसार’ नी शरूआत पण एवी अपूर्व करी के अनंता सिद्धभगवंतोने
आत्मामां स्थापीने मंगळ कर्युं. जेवा सिद्ध भगवान छे तेवो ज हुं छुं–एम
सिद्धभगवानने आत्मामां स्थापीने तेमने वंदन कर्या. हुं सिद्ध ने तुं पण सिद्ध–एम
श्रोताने पण भेगो लईने समयसार संभळावे छे, तुं पण आत्मामां सिद्धपणुं स्थापीने,
हा पाडीने होंशथी सांभळजे.
परघरमां अनंतकाळ वीत्यो पण स्वघरमां आवतां उत्साह होय छे; संसारमां
रखडवामां भले अनंतकाळ वीत्यो पण साधक थईने मोक्षने साधता कोईने
अनंतकाळ न लागे; असंख्य समयथी वधारे साधकपणामां लागे नहीं. जेम सवारे
बळद ज्यारे घरेथी नीकळीने खेतरमां मजुरी करवा जता होय त्यारे तेनी चालमां
वेग न होय; धीमे धीमे जाय; पण सांजे ज्यारे आखा दिवसनी मजुरीथी छूटीने घरे
आवता होय त्यारे उत्साहभेर दोडता आवे छे; हवे निरांते घरमां रहेशुं ने
गमाणमां चारो चरशुं–एम तेने उत्साह छे. तेम अज्ञानथी संसारमां अनंतकाळ
सुधी रखडी रखडीने थाकेलो जीव, ज्यारे अंतरमां स्वघरे आवे छे त्यारे उत्साहथी
तेनी परिणति स्वरूप तरफ दोडे छे, ने असंख्य समयना काळमां संसारनो छेद करीने
परम आनंदरूप सिद्धपदने साधी ल्ये छे.
अहो, आवा आनंदमय निजपदने साधवानी रीत आचार्यदेवे आ
समयसारमां बतावीने जगत उपर महान उपकार कर्यो छे; जगतने आत्माना
आनंदनी भेट आपी छे. जेवो पूर्णानंदनो स्वाद सर्वज्ञ परमात्माए लीधो तेवो ज
आनंदनो स्वाद आत्मामां प्रगटे, भले पूरो नहीं पण अंशे, छतां आनंदनी जात तो ते
ज,–एवो आनंद आत्मामां प्रगटे त्यारे धर्म थयो कहेवाय. आत्माना वैभवरूप धर्म,
तेमां आनंदनी छाप छे. धर्म थाय ने आत्मानो आनंद न प्रगटे एम बने नहीं. चैतन्य
सरोवरमां डुबकी मारतां अतीन्द्रिय आनंद प्रगटे छे. चैतन्यसरोवरनो हंसलो
आनंदरूपी साचा मोतीनो चारो चरे छे. हे जीव! अमे आनंदना अनुभवपूर्वक जे
शुद्धात्मा बतावीए छीए ते शुद्धात्माने तुं प्रमाण करजे, विकल्पथी नहीं पण
अंतरना स्वानुभवथी प्रमाण करजे, आम कहीने आचार्यभगवाने अनुग्रहपूर्वक
जगतने आत्माना आनंदनी भेट आपी छे.
(जामनगर–प्रवचन, समयसार गा. प महा सुद पांचम)
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