Atmadharma magazine - Ank 317
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : फागण : २४९६
आचार्यदेव शुद्धआत्मा देखाडे छे
शिष्यने एक ज धून छे के
मारा शुद्धआत्माने मारे जाणवो
आत्मानुं शुद्धस्वरूप केवुं छे के जेने जाणवाथी आत्मानुं कल्याण थाय? जेनुं
स्वरूप न जाणवाथी हुं संसारमां दुःखी थयो, अने जेने जाणवाथी परम आनंद
प्रगटे एवा शुद्धात्मानुं स्वरूप केवुं छे?–आ प्रमाणे शुद्धआत्मानुं स्वरूप जाणवानी
धगशथी जे शिष्य पूछे छे तेने आचार्यदेव शुद्धआत्मानुं स्वरूप देखाडे छे. स्वर्ग केम
मळे, पुण्य केम बंधाय के पैसा केम मळे–एवी कोई वात शिष्य नथी पूछतो, तेना
अंतरमां तेनो प्रेम नथी, तेना अंतरमां एक ज धून छे के मारा शुद्धआत्माने मारे
जाणवो छे. तेथी तेनी ज वात पूछे छे. एवा शिष्यने शुद्धात्मानुं स्वरूप समजाववा
आ समयसारनी रचना छे.
वीतराग परमात्मानी वाणी जेमने साक्षात् सांभळवा मळी हती, अंतरमां
आत्माना आनंदनी ज्योति जेमने प्रगटी हती, अने चैतन्यना वीतरागस्वरूपमां
झूलता हता एवा संत–महंतनी आ वाणी छे. तेओ आ समयसारमां एकत्वविभक्त
शुद्धआत्मानुं स्वरूप पोताना आत्माना निजवैभवथी समजावे छे, एटले के अंतरना
स्वानुभवपूर्वक आ वाणी छे. तेना द्वारा दर्शावेला शुद्धात्मानो तमे जाते स्वानुभव
करीने शुद्धात्माने प्रमाण करजो.
आ छठ्ठी गाथामां आत्माना अपूर्व अलौकिक भावो भर्या छे. चैतन्यरत्न शुं
चीज छे ते बताव्युं छे. पण रत्ननी झलक तो झवेरी पारखी शके, खेडुतने एनी
खबर न पडे. चैतन्यप्रकाशथी झळकतो आत्मा सर्वज्ञता अने आनंदना समुद्रथी
भरेलो छे. एनी अंदरनी रिद्धि, एनो निजवैभव कोई अचिंत्य छे. आवा
स्वभाववाळो ज्ञायक आत्मा स्वयंसिद्ध अनादिअनंत सत्रूप छे, वर्तमान पण
एवो ज प्रकाशमान छे. ज्ञायकस्वभावी आत्मा अनादिअनंत एवो ने एवो
एकरूप, ते शुभ ने अशुभ एवा कषायचक्ररूपे थई गयो नथी. स्वसंवेदनथी आवो
आत्मा अनुभवमां आवे छे. अनादि–अनंत आत्मानुं ज्ञान तो एक क्षणमां थई
जाय छे. पर्याय अंतर्मुख थतां एक समयमां अनादिअनंत आत्मा स्वानुभवथी
जणाय छे. आत्मानो अनुभव