: चैत्र : २४९६ आत्मधर्म : १९ :
तेनो निषेध नथी. पण ज्ञानथी विरुद्ध एवी जे क्रोधादि परभावोनी क्रिया ते आत्मानुं
स्वरूप नथी, ते बंधनुं कारण छे, तेथी मोक्षना मार्गमां ते क्रियानो निषेध छे.
पुण्यवंत हाथी वगेरेना कपाळमां मुक्ताफळनां मोती (गजमोती) पाके छे.
लडाईमां ज्यारे ते हाथी मरे अने तेना शरीरना मांस साथे मुक्ताफळनां मोती पण
वेराई जाय, त्यारे काळा कागडा तो ते मुक्ताफळने छोडीने मांस थाय छे; पण
मानसरोवरना धोळा हंसला तो साचा मोतीनो चारो चरे छे. तेम चैतन्यप्रभु आत्मा
आनंदथी भरपूर समुद्र, तेमां अनंत पवित्र गुणरूपी रत्नो छे; शरीर तो मांसनो
पिंडलो छे ने क्रोधादि परभावो पण मलिन विकारी भाव छे; त्यां सम्यग्द्रष्टि हंसला तो
विवेक वडे चैतन्यगुणरूपी रत्नोने अंगीकार करे छे; पण मिथ्याद्रष्टि जीवो कागडानी जेम
अविवेकथी क्रोधादि परभावो रूपे ज पोताने अनुभवे छे ने जड शरीरनी क्रियाओने
पोतानी माने छे. आचार्यदेव तेने भेदज्ञान करावीने जडथी जुदुं परभावोथी पण जुदुं
शुद्ध चैतन्यस्वरूप समजावे छे. एवा स्वरूपने द्रष्टिमां लेतां ज राग वगरना अतीन्द्रिय
आनंदनुं वेदन थाय छे.
आत्मानो स्वभाव तो ज्ञानभवनरूप छे, ज्ञानरूपे थईने स्व–परने जाणे एवी
ज्ञानप्रवृत्ति ते तो आत्मानुं स्वरूप छे; पण पोताना एवा स्वभावरूपे न परिणमतां,
रागादि परभावो साथे एकताबुद्धिरूप अज्ञानने लीधे जीव क्रोधादि परभावोमां प्रवर्ते
छे; ते ज दुःख अने संसारनुं कारण छे.
ते क््यारे छूटे? ए वात आचार्यदेवे आ समयसारमां समजावी छे. आत्मा
शुं? एनो स्वभाव शुं? अने एनाथी विरुद्ध एवा रागादि परभाव शुं? तेनी
ओळखाण अने जुदापणानो विवेक करीने, परभावथी भिन्न वर्तवुं–ते मोक्षनो
उपाय छे.
[जैन उपरांत अजैन जिज्ञासुओ पण प्रवचननो लाभ लेवा आवता हता.
मध्यप्रदेशना भूतपूर्व मुख्यप्रधान श्री भगवंतराव मंडलोई पण गुरुदेवना दर्शन तथा
प्रवचननो लाभ लेवा आव्या हता; ने गुरुदेवना हस्ते तेमने जैनबाळपोथी वगेरे
पुस्तको भेट आपवामां आव्या हता.)
फागण वद एकमना दिवसे धूळेटीना कारणे चारेकोर रंगना छंटकावनी
धमाल होवाथी सवारनुं प्रवचन बंध हतुं. आ बाजु मध्यप्रदेशमां होळीनुं गांडपण
विशेष देखाय छे. नगरीमां चारेकोर लाल–लीला रंग अने कादवथी ज्यारे मलिनता
छवायेली