Atmadharma magazine - Ank 320
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : जेठ : २४९६
तो विचार करवो जोईए के सुखनो मार्ग कांईक बीजो छे. पुण्यथी पार आत्मा
छे; तेनुं भान करवुं ते ज सुखी थवानो रस्तो छे.
१२. आत्मा पोते ज्ञान अने सुखस्वरूप छे, ते रागरूप के देहरूप नथी. सुखस्वरूप
आत्माने रागस्वरूप मानवो ते भगवान आत्मानो तिरस्कार छे. अरिहंतोए
तो रागथी धर्म न थाय, वीतरागभावथी ज धर्म थाय एम कह्युं छे, ने अज्ञानी
कहे छे के शुभरागथी धर्म थाय,–तो तेणे अरिहंतनी स्तुति न करी पण
अरिहंतोना वीतरागमार्गनो अनादर करीने अस्तुति करी. रागनो जेणे आदर
कर्यो तेणे अरिहंतोनो अनादर कर्यो. आ तो अरिहंतोनो अलौकिक
वीतरागमार्ग छे.
१३. भगवान कहे छे के तारे मारी परमार्थस्तुति करवी होय तो मारा सामे न जो,
पण तारा ज्ञानस्वभावनी सन्मुख जो. मारा सामे जोये मारी परमार्थस्तुति
नहीं थाय पण तारा स्वभाव सामे जोईने ज्ञानानंदस्वरूपनो अनुभव कर, तो
तुं पण अमारा जेवो थईश. आ रीते स्वसन्मुख अतीन्द्रिय भाव वडे ज
सर्वज्ञना मार्गनी आराधना थाय छे; ते ज मोक्षमार्गरूप धर्म छे.
१४. वन–जंगलमां वसनारा ने आत्माना अतीन्द्रिय आनंदमां झुलनारा एवा
पद्मनंदि मुनिराजे बनावेला आ पंचविंशतिका शास्त्रमां भगवान ऋषभदेवनी
स्तुतिनो एक अधिकार छे. अहीं पंचकल्याणक उत्सवमां पण भगवान
ऋषभदेवना पंचकल्याणकनां द्रश्यो थवाना छे. अरिहंत परमात्मा केवा होय?
तेना आत्मानी साची ओळखाण करतां आत्माना स्वरूपनी ओळखाण थाय छे
ने मोहनो नाश थईने सम्यग्दर्शन थाय छे.–ए वात प्रवचनसारमां ८० मी
गाथामां समजावी छे.
१५. जगतमां अनंत आत्माओ छे, ते दरेक आत्मा ज्ञानस्वभावी छे. तेनी
अवस्थामां त्रण प्रकारो पडे छे: (१) जे बहारनी वस्तुने के रागादि
बाह्यभावोने आत्मारूपे अनुभवे छे ते बहिरात्मा छे. (२) जे परथी भिन्न
पोताना ज्ञानानंदस्वरूपने अंतरमां देखे छे ने तेने साधे छे ते अंतरात्मा छे.
(३) आत्मानुं परम स्वरूप जाणीने तेवुं परिपूर्ण जेमणे प्रगट कर्युं छे ते
परमात्मा छे. आवा परमात्मानी ओळखाण अने भक्तिनुं आ वर्णन छे.
आत्माने ओळख्या वगर परमात्मानी साची ओळखाण थती नथी. ने
ओळखाण वगरनी स्तुतिने साची स्तुति कहेवाय नहीं. तेथी समन्तभद्र स्वामी
कहे छे के हे प्रभो! रागनी ग्रंथिवाळा