“विश्वनी श्रेष्ठ निधिओ करतां पण सम्यक्त्व महान छे”
“मनुष्यने निधि, स्त्री अने वाहन वगेरेनी प्राप्ति तो जगतमां सुलभ छे.”
परंतु सम्यग्दर्शनरूपी रत्न तो साम्राज्य करतांय दुर्लभ छे.”
–कोण कहे छे उपरनां वचन? सती सीता कहे छे.
–क्यारे कहे छे? ज्यारे रामचंद्रजीनी आज्ञाथी तेने भीषण वनमां छोडी देवामां
आवे छे त्यारे वनमांथी सती सीता कृतान्तवक्र सेनापति मारफत महाराज रामचंद्रजीने
सन्देशमां कहेवडावे छे के “तमे लोकनिंदाना भयथी मने तो गर्भावस्थामां भीषणवनमां
छोडी दीधी परंतु ए प्रमाणे क्यांक ते लोकनिंदाना भयथी सम्यग्दर्शनने के जिनेन्द्रदेवनी
भक्तिने न छोडी देशो. केमके–
“नरस्य सुलभं लोके निधि–स्त्री–वाहनादिकम्।
सम्यग्दर्शनरत्नं तु साम्राज्यादपि दुर्लभम्।।४२।।
(पद्मपुराण पर्व ९९)
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मु मु क्षु नो सि द्धां त
एक वखत सत्समागममां वसता एक गरीब जिज्ञासुनी मुलाकात थई...
चारेकोरनी प्रतिकूळताथी घेरायेला ते जिज्ञासुने एक साधर्मीए कोमळताथी कह्युं–भाई,
चालो अमारी साथे अमुक शहेरमां, तमारी बधी मुश्केलीओ दूर थई जशे. त्यारे ते
जिज्ञासुए लागणीपूर्वक वैराग्यथी जवाब आप्यो: भाई, आपनी लागणी माटे आभार!
परंतु थोडीक सगवड खातर आवो अलभ्य सत्समागम छोडवानुं हुं कदी विचारी शकुं तेम
नथी. एक मुमुक्षु तरीके मारो सिद्धांत छे के गमे तेवां अपमान के गमे तेवी प्रतिकूळता हो
तोपण सत्समागम छोडवो नहि, संतजनोना समागम खातर गमे तेवुं अपमान के
प्रतिकूळताओ सहेवी ते कांई मोटी वात नथी. ते भाई आ उत्तरथी प्रसन्न थया अने कह्युं
के खरेखर आत्मार्थी जीवनी आवी ज भावना होवी जोईए. सत्समागमे आत्मार्थीता
साधवा खातर मरण जेटला कष्ट सहन करवा पण तेणे तैयार रहेवुं जोईए.
संतो कहे छे के हे जीव! तुं मरीने पण तत्त्वनो कौतुहली था...मरण जेटला कष्ट
आवी पडे तोपण तेनी उपेक्षा करीने संतजनोना समागममां रहीने आत्माने साधवामां
तत्पर था.