Atmadharma magazine - Ank 320
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २४९६ आत्मधर्म : ४१ :
४० वर्षनो राजकुंवर जेवो दीकरो–रात्रे तो शांतिथी सुतो होय ने सवारमां (जागीने
जोउं तो जीवन दीसे नहीं!) अचानक एनुं अवसान नजरे पडतां के तेना समाचार
सांभळतां एनां सगांओने मोहथी केटलुं दुःख थाय? ते बीजुं शुं करे? कांतो शोकथी
दुःखी था्य, कां तो ज्ञानना लक्षे वैराग्य करीने समाधान करे. बाकी साक्षात् त्रण लोकना
नाथ तीर्थंकर भगवान पण कोईना आयुष्यमां एक समय मात्रनो पण वधारो करी
शकता नथी. आयुष्यमां फेरफार करवा तो ईन्द्र–नरेन्द्र के जिनेन्द्र पण समर्थ नथी.
देवलोकना देवो, के जेमनुं करोडो–अबजो वर्षनुं आयुष्य होय छे तेमनो पण मरणसमय
आवे छे त्यारे तेमनी रक्षा करीने तेमने मरणथी कोई बचावी शकतुं नथी; तो पछी आ
मनुष्यलोकना साधन सगवड के डोक्टर, के कुटुंबीजनो तो शुं करी शके? ते शरीरनी
साथे स्वजननो संबंध छे तेथी दुःख थाय छे; नाश तो शरीरनो थाय छे; आत्मा तो
अमर छे, ते आ शरीरनुं घर बदलीने बीजा घरमां जाय छे. जो शरीररहित एवा
आत्मानी द्रष्टि करे तो तेने फरी आवा शरीर धारण करवा पडता नथी; देह वगरनुं
कायमी जीवन ते जीवे छे, ने मोक्षपुरीमां महाले छे.
पू. गुरुदेव कहे छे तेम, आ मनुष्यभव वीजळीना चमकारा जेवो छे, पाणीना
परपोटा जेवुं क्षणिक जीवन छे; हे भाई! जो तुं आ मनुष्यभवमां पण सत्समागमे
आत्महित माटे कांई नहीं करे तो अनंत जन्म–मरणना फेरामां फर्या करीश माटे आ
भवमां ज शीघ्र प्रमादने छोड. तीव्रबुद्धिनो उपयोग करी खरो आत्मार्थी बन, अने जड–
चेतननी अत्यंत भिन्नताने समजी ले. आ माटे, आत्मसिद्धिनां प्रवचनो अने
आत्मधर्मनां अंको शरूआतना जिज्ञासु–मुमुक्षु जीवोने खूब ज उपयोगी तथा वैराग्यना
प्रबळ कारणरूप छे; तेथी तेनुं श्रवण, तेनुं वांचन, तेनुं मनन ए बधुं करवानो समय
छे. रे जीव! पूर्वपुण्यनां फळथी आ जीवन दरमियान धर्म करवाने योग्य बधी जातनी
अनुकूळता अने ज्ञानीनो सत्संग मळ्‌यो छे, तो तेमां आत्महित माटे तैयारी करवानी
छे; कारण के जीव तो एकलो ज जन्मे छे ने एकलो ज देह छोडीने चाल्यो जाय छे,–साथे
पाप–पुण्यना फळ अने धर्मना संस्कार ज आवे छे. आ लोकनी कोईपण वस्तु तने
साथ आपनार नथी, मात्र धर्मनुं शरणुं ज साथीदार बने छे.
संसारनी विटंबना एवी छे के जीवने अनादि काळनी टेव होवाथी ते बाह्य
प्रलोभनोमां आकर्षाई जाय छे; परंतु जो उग्र पुरुषार्थ उपाडे तो तेने अटकाववा कोई
समर्थ नथी. आत्मा स्वयं आनंदमय, सुख अने शांतिनो समुद्र छे. पुण्य–पापना फळमां
अनुकूळ–प्रतिकूळतानी कल्पना कर्या वगर, एकला चिदानंद स्वभावमां ज चित्तने
केन्द्रित करवाथी साची अपूर्व शांति अनुभवी शकाय छे.