फोन नं. : ३४ “आत्म धर्म” Regd No. G. 182
अरे जीव! मोहने लीधे तुं क्षणे क्षणे परभावनी फांसीए तारा आत्माने चडावी
रह्यो छे...एनाथी आत्माने बचाववो होय तो चैतन्यस्वरूप आत्माने जाणीने तेनुं
स्मरण कर. परभावोमां अज्ञानथी आत्मा फसायेलो छे, परने पोतानुं मान्युं ते
अपराधथी परभावनी फांसीमां पड्यो, परभावथी भिन्न चिदानंदस्वरूप आत्माने
ओळखवो ने अनुभववो ते ज आ भवभ्रमणनी फांसीमांथी छूटवानो उपाय छे.
अज्ञान ए ज मोटी फांसी छे, तेनाथी छूटवुं होय तो सम्यग्ज्ञान कर.
समभाव वडे भवपार–
सर्वत्र राग–द्वेष छोडीने स्वसंवेदनरूप समभाववडे ज्ञानी केवळज्ञानने साधे छे,
अहा, चैतन्यनो समभाव! जेने जगतमां क्यांय राग नथी, जगतमां क््यांय द्वेष नथी,
निजस्वरूपना वेदनमां ज अत्यंत लीनता उपशमभाव छे, आवो समभाव ते
भवसागरथी तरवानो उपाय छे. शुद्धात्माना संवेदन वगर साचो समभाव जागे नहि.
शुद्धात्माना अनुभवरूप समभावमां वीतरागतानो परम आनंद छे.
एक नानो विकल्प पण समभावमां नथी–
अरे, भणवा–भणाववानो एक नानो विकल्प ते पण स्वरूपना निर्विकल्प
समभावने रोकनारो छे, त्यां बहारना बीजा विकल्पोनी शी वात! परने करुं ने रागने
करुं–एवी कर्तृत्त्वबुद्धिमां तो मोटो विषमभाव छे, तेमां तो स्वरूपनी शांतिनुं वेदन क्यांथी
होय? परथी भिन्न, रागथी भिन्न, सहज चैतन्यस्वरूपना अनुभवपूर्वक धर्मीने सम्यक
श्रद्धा–ज्ञान–थया, तेटलो वीतरागी समभाव छे, छतां हजी शास्त्रादि संबंधी विकल्प ऊठे
तो तेटलो पण परम समाधिभावमां विक्षेप पडे छे, शुद्धोपयोगरूप समभावमां स्थित
मुनिराजने एटलो पण विकल्प नथी होतो, निर्विकल्पतावडे शुद्धस्वरूपमां ज निश्चल थईने
समभावरूप अमृतनुं पान करे छे–आवो समभाव ते मोक्षनुं कारण छे. आ समभावमां
परनी परम उपेक्षा छे, क्यांय कोईने राजी करवुं, कोईथी राजी थवुं–एवी परनीअपेक्षा
तदन छूटी गई छे, ने निजस्वरूपना वेदनमां ज मग्नता छे.
श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती प्रकाशक अने
मुद्रक: मगनलाल जैन अजित मुद्रणालय: सोनगढ (सौराष्ट्र) प्रत: २७००