Atmadharma magazine - Ank 322
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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* आत्मधर्म *
(संपादकीय)
धर्म प्रत्येनुं वात्सल्य ए धर्मीजीवनुं चिह्न छे. रत्नत्रयरूप जे मार्ग तेमां
अभेदबुद्धिरूप परम वात्सल्य, अने ते रत्नत्रयमार्गमां चालनारा पोताना सहधर्मीओ
प्रत्ये पण निस्पृह वात्सल्य, ते पोताना धार्मिकप्रेमनी निशानी छे. वीतरागमार्गने
साधी रहेला बीजा धर्मात्माओने देखीने, प्रसन्नताथी ‘अहो! आ केवा उत्तम धर्मने
साधी रह्या छे!’–एवो अंतरनो उल्लास आवे छे ने ते उल्लासवडे पोते पोताना
धार्मिकभावने पुष्ट करे छे. मने के मारा साधर्मीने धर्मनी साधनामां कदी कोई विघ्न न
हो, ने एवो बाह्य प्रसंग आवी पडे तो ते केम दूर थाय, एवी वात्सल्यभावनावडे
विचारक मुमुक्षुओनो विशाळ वाचकवर्ग धरावतुं आपणुं आ ‘आत्मधर्म’ पू.
गुरुदेवनी मंगल छायामां, सौ साधर्मीओना सहकारपूर्वक विकसी रह्युं छे.....हिंदी–
गुजराती मळीने आजे तेना पांचहजार उपरांत ग्राहको छे, अने वर्ष पूरुं थतां पहेलां
ज लगभग बधा ग्राहको पोतानुं नवुं लवाजम पोतानी मेळे ज मोकली आपे छे; बीजा
पत्रोने पोतानुं लवाजम वसुल करवा केटलीये सूचनाओ ने योजनाओ घडवी पडे छे,
V. P. करीकरीने लवाजम मंगाववा पडे छे, त्यारे आपणा आत्मधर्मना हजारो
जिज्ञासुओ सामेथी वेलासर लवाजम मोकली आपे छे.–आवा अध्यात्मरसिक वांचकोनो
समूह ते आत्मधर्मनुं खास गौरव छे.....गुरुदेवे बतावेला अध्यात्मतत्त्व प्रत्ये
जिज्ञासुओनो केटलो प्रेम छे! तेनी ते प्रसिद्धि करे छे. (नवा वर्षनुं लवाजम रूा चार छे;
अने ते सोनगढमां अथवा पोताना गाममां मुमुक्षुमंडळमां भरी शकाय छे. वर्षनी
शरूआत दीवाळी–आसो वद अमासथी थाय छे. पाछळथी घणा अंको अप्राप्त थई जाय
छे एटले शरूआतथी ग्राहक थई जवुं वधुं सारूं छे.)
आत्मधर्मने माटे लेख–समाचार वगेरे मोकलनार बंधुओने सूचना के जे कांई
लखाण मोकलवानुं होय ते स्पष्ट सुवाच्य अक्षरे, सीधुं संपादक उपर मोकलवुं जरूरी छे.
बीजा उपर मोकलायेलुं लखाण घणी वखत संपादकने मळतुं होतुं नथी, अगर खूब
विलंबथी मळे छे, तेथी एवा लखाणोने स्थान आपवानुं मुश्केल बने छे. आत्मधर्ममां
पीरसवानो छे. जिज्ञासुओ उत्तम सलाह–सूचनाओ वडे आत्मधर्मना विकासमां सहकार
आपे–एवी भावना छे.