: ३२ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९६
थई गयुं; हजी आत्मानुं ज्ञान तो तेने थयुं न हतुं, एटले आर्त्तध्यानना भूंडा भावथी
मरीने ते पशुगतिमां जन्म्यो, ने सम्मेदशिखरनी नजीकना एक वनमां मोटो हाथी थयो.
[प्रिय पाठक! हाथी थयेलो आ पारसनाथ भगवाननो जीव, आ हाथीना
भवमां ज आत्मज्ञान पामवानो छे. तेनी सुंदर कथा आवता अंकमां तमे वांचशो. पण
ते पहेलां, कमठनुं तथा राजा अरविंदनुं शुं थयुं ते जाणी लईए.]
कमठे पोताना भाईने पत्थर वडे छूंदी नांख्यो–ए वात ज्यारे आश्रमना
तापसोए जाणी त्यारे तेमणे कमठने पापी जाणीने त्यांथी काढी मूक््यो. पापी कमठ चोर
लोको साथे रहेवा लाग्यो ने चोरी करवा लाग्यो. चोरी करतां पकडायो त्यारे तेने खूब
मार्यो. ते घणो दुःखी थयो, पण तेणे पोताना भाव सुधार्या नहीं, अंते क्रोधमां मरीने ते
कुक्कट नामनो भयंकर झेरी सर्प थयो.
मरूभूति तो मरीने हाथी थयो छे, पण आ बाजु राजा अरविंदने तेनी कांई
खबर नथी; ते तो चिंता करे छे के मरूभूति हजी केम पाछो न आव्यो? एवामां त्यां
एक अवधिज्ञानी मुनिराज पधार्या, तेमने उपदेश सांभळीने राजा घणो खुशी थयो.
पछी पूछयुं के मारो मंत्री मरूभूति क्यां छे? ते हजी केम पाछो आव्यो नथी?
त्यारे मुनिराजे कह्युं के हे राजा! मरूभूतिने तो तेना भाई कमठे मारी नांख्यो
छे... दुःखथी कुमरण करीने ते हाथी थयो छे.
ए सांभळतां ज राजाने खेद थयो; ते विचारवा लाग्यो के अरे! आ संसार केवो
छे! दुष्टनो संग करवाथी मरूभूति दुःखी थयो.
मुनिराजे वैराग्यथी समजाव्युं के हे राजा! आ संसारना जन्म–मरणने कोई
मिथ्या करी शकतुं नथी. आत्मानुं ज्ञान ज्यां सुधी न करे त्यां सुधी जीवने आवा जन्म–
मरण थया ज करे छे. पोताना हितने माटे जीवे दुष्ट पुरुषोनो संग छोडी ज्ञानी
धर्मात्माओनो संग करवा जेवो छे.
राजा उदासचित्ते घेर आव्यो; एकवार राजमहेलनी अगाशीमां बेठो हतो ने
मुनिराजना उपदेशने याद करीने वैराग्यना विचार करतो हतो, एवामां एक घटना
बनी. आकाशमां सुंदर रंगबेरंगी वादळां भेगा थवा लाग्या, ने थोडीवारमां तो एक
अत्यंत सुंदर जिनमंदिर होय एवुं द्रश्य बनी गयुं. एनो देखाव अद्भुत हतो!
अहा,