Atmadharma magazine - Ank 322
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९६ आत्मधर्म : ३३ :
आकाशमां आवुं रमणीय जिनमंदिर,–ते देखीने राजाने एवो विचार आव्यो के हुं पण
मारा राज्यमां आवुं ज मंदिर बनावीश–आम विचारीने ते मंदिरनुं चित्र करी लेवा
तेणे तैयारी करी. पण राजाए हजी तो कलम हाथमां लीधी त्यां तो वादळां वीखराई
गया ने ते अद्भुत मंदिरनी रचना अद्रश्य थई गई.
राजा तो आ देखीने दिंग थई गयो...अरे! आवो अस्थिर संसार! संयोग
आवा क्षणभंगुर! आ राजपाट–राणी–शरीर ए बधा संयोगो पण आ वादळां जेवा ज
असार अने विनाशिक छे. अरे, आवा अस्थिर ईन्द्रियविषयोमां दिनरात मच्या रहेवुं–
ते जीवने शोभतुं नथी. आ शरीर क्षणभंगुर छे ने भोगो तो दुःख देनारा ज छे. जेणे
पोतानुं हित करवुं होय तेणे आवा भोगोना मोहमां जीवन गुमाववुं योग्य नथी. जेम
आ वादळां क्षणनाय विलंब वगर वीखराई गया, तेम हुं पण हवे तो क्षणनाय विलंब
वगर आ संसार छोडीने मुनि थईश ने आत्मध्यान वडे कर्मनां वादळांने वीखेरी
नांखीश.
–आ प्रमाणे अत्यंत वैराग्यपूर्वक राजपाट छोडीने अरविंद राजा वनमां चाल्या
गया ने दिगंबर गुरु पासे दीक्षा लईने मुनि थया. ते अरविंदमुनिराज आत्मानुं साधन
करे छे ने देशोदेश विचरे छे; अनेक तीर्थोनी यात्रा करे छे ने अनेक जीवोने प्रतिबोधे छे.
धन्य मुनिराज! (आवता अंकमां हाथीने सम्यग्दर्शन थवाना प्रसंगनुं अद्भुत–
आनंदकारी वर्णन जरूर वांचो.)
हुं छुं आनंदधाम
सम्यग्दर्शन थतां आनंदनो अनुभव
थयो, त्यां निःशंकपणे धर्मी जाणे छे के
आवो आखोय आनंद ते हुं छुं. ज्यां
पोतानो आनंद पोतामां देख्यो, एनो
स्वाद चाख्यो, त्यां परमां क्यांय
सुखबुद्धि ज्ञानीने रहेती नथी; पोताना
आनंदधाम तरफ ज वृत्तिनो वेग वहे
छे.
थाक नहीं पण उत्साह
स्वभाव समजवाना उद्यममां तने थाक
लागे छे ने परभावमां तने थाक नथी
लागतो,–पण अरे भाई! स्वभावने
साधवो एमां थाक शा? एमां थाक न
होय, एमां तो परम उत्साह होय, ए तो
अनादिना थाक उतारवाना रस्ता छे.
मुमुक्षुने तो परभावमां थाक लागे ने
स्वभाव साधवामां परम उत्साह जागे.