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‘वस्तुत्व’ थी ते स्वयं पोताना गुण–पर्यायोथी परिपूर्ण छे.
‘द्रवत्व’ थी ते परिणमनशील वर्तती थकी स्वकार्य कर्या करे छे.
‘प्रमेयत्व’ थी ते स्वयं पोते पोताना ज्ञानमां जणाय छे.
‘अगुरुलघुत्व’ थी निजस्वरूपमां टकती थकी अन्य साथे भळती नथी.
‘प्रदेशत्व’ थी असंख्य स्वप्रदेशरूप निजधाममां रहे छे.
‘ज्ञान’ गुणथी आत्मवस्तु स्वयंप्रसिद्ध स्वसंवेदनरूप छे.
–आवी निजगुणसंपन्न स्ववस्तुना चिंतनमां चित्तने
एकाग्र करीने हे आत्मा! तुं स्वयं स्वसंवेदनरूप बन.
एकनो ज्ञाता ते सर्वनो ज्ञाता.
एकनो अजाण, ते सर्वनो अजाण.
स्वतत्त्व उत्तम ज्ञेय छे,
एने जाणतां आनंद थाय छे.
स्वानुभूति ज आनंदनुं धाम छे.
सर्वोपरिकार्य–आत्महितसाधना.
शरीरथी आत्मा जुदो तो छे ज,
–तो पछी मरणथी डरवुं शुं?
प्रकाशक: श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ (सौराष्ट्र)
मुद्रक: मगनलाल जैन अजित मुद्रणालय: सोनगढ (सौराष्ट्र) प्रत: २८००