Atmadharma magazine - Ank 323
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९६
ज्ञानचेतनानो
महिमा
हे जीव! ज्ञानस्वभावनो निर्णय करीने ज्ञानना ऊंडा पाया
नांख. ज्ञानस्वरूपनो निर्णय करीने तेनुं ऊंडुं घोलन कर, –उपरछलुं
नहीं पण ऊंडुं घोलन कर, तो अंतरमां तेनो पत्तो लागशे, ने अपूर्व
आनंद सहित ज्ञानचेतना प्रगटशे. ते रागद्वेष वगरनी छे.
आत्मानो ज्ञायकस्वभाव छे, ज्ञेयोने जाणतां राग–द्वेषरूप विक्रिया पामे एवो
तेनो स्वभाव नथी; पोताना स्वरूपथी च्युत थया वगर ज्ञेयोने जाणवानो तेनो
स्वभाव छे. अने ज्ञेयोमां पण एवो स्वभाव नथी के ज्ञानमां राग–द्वेष करावे.
जगतमां प्रशंसाना शब्दो परिणमे, ते ज्ञानमां जणाय, तेथी राग करे एवो
ज्ञाननो स्वभाव नथी; तेमज जगतमां निंदाना शब्दो परिणमे, ते ज्ञानमां जणाय, तेथी
द्वेष करे एवो ज्ञाननो स्वभाव नथी; तेमज ते प्रशंसा के निंदाना शब्दो जीवने एम
नथी कहेतां के तुं अमारी सामे जोईने राग–द्वेष कर.
जीवनो ज्ञानस्वभाव पण एवो नथी के ज्ञेयोनी सन्मुख थईने तेने जाणे के
राग–द्वेष करे. बाह्य पदार्थो प्रत्ये उदासीन रहीने, एटले के निजस्वरूपमां ज अचल
रहीने जाणवानो ज्ञाननो स्वभाव छे. आवुं ज्ञान ते ज आत्मानो महिमा छे.
आवा पोताना ज्ञानमहिमाने जे नथी जाणतो ते ज अज्ञानथी राग–द्वेष करे छे,
अने पदार्थो मने राग–द्वेष करावे छे एम अज्ञानथी माने छे. वस्तुस्वभावनी साची
स्थितिने ते जाणतो नथी.
भाई! जगतना कोई शुभ–अशुभ पदार्थमां एवी ताकात नथी के तारा ज्ञानमां
राग–द्वेष करावे. अने तारा सहज ज्ञाननुं पण एवुं स्वरूप नथी के राग–द्वेष करे.
पुत्रनो संयोग के वियोग, धननो संयोग के वियोग, निरोग शरीर के भयंकर
रोग, सुंवाळो स्पर्श के अग्निनो स्पर्श, मधुर रस के कडवो रस, सुगंध के दुर्गंध, सुंदर
रूप के बेडोळ रूप, प्रशंसाना शब्दो के निंदाना शब्दो, धर्मात्माना गुणो के पापी