तो वारंवार निर्विकल्प शुद्धोपयोग थया करे छे. ज्ञानचेतनानो उपयोग वारंवार
अंतरमां एकाग्र थाय छे; त्यारे छठ्ठा–सातमा गुणस्थानरूप चारित्रदशा थाय छे. आवी
चारित्र दशामां शरीर तद्न दिगंबर होय छे. पंचमहाव्रतादि व्यवहार होय छे. पण
महाव्रतादिना विकल्पोथी ज्ञानचेतना तो जुदी छे. आ काळेय आवी ज्ञानचेतना अने
मुनिदशा प्रगटी शके छे, आ काळे कांई मुनिदशानो निषेध नथी.
पासे जईने कहे छे के हे माता! अमारी ज्ञानचेतना सिवाय आ संसारमां अमने क्यांय
चेन नथी, रागमां अमने चेन नथी; अमारा चैतन्यनो जे आनंद–भंडार अमे जोयो छे
तेमां ज अमने चेन छे; ते आनंदने साधवा माटे मुनि थया मांगीए छीए.–माटे हे
माता! तमे अमने रजा आपो.–आवी मुनिदशा आ पंचमकाळमां पण थई शके छे.
परंतु हजी जेने तत्त्वनुं भान नथी, ज्ञानचेतना प्रगटी नथी, ने रागमां जेने चेन छे (–
रागने मोक्षनुं कारण माने छे) तेने तो मुनिदशा केवी? ने सम्यग्दर्शन पण केवुं? ते तो
मिथ्यात्वमां ऊभा छे. अहीं तो अंतरना अनुभव–सहित सम्यग्दर्शन जेने थयुं छे ने
ज्ञानचेतना प्रगटी छे, तेने विशेष एकाग्रता वडे चारित्रनो वैभव प्रगटे छे, ने ते
साक्षात् मोक्षनुं कारण छे. आवी चारित्रदशा वगर कोईने मोक्ष थाय नहीं; ने
सम्यग्दर्शन वगर आवी चारित्रदशा कोईने थाय नहीं.
प्रमाणथी आत्मानुं स्वरूप जाणवुं; आ रीते चोथा गुणस्थाने जे ज्ञानचेतना प्रगटी ते
निरंतर रहे छे. –पण तेनो उपयोग स्वमां क््यारेक होय छे. पछी वारंवार ते
ज्ञानचेतनाना अभ्यास वडे एकाग्रता थतां मुनिदशा थाय छे; पछी उपयोग
निजस्वरूपमां एकाग्र करीने श्रेणी मांडतां साक्षात् पूर्ण ज्ञानचेतनारूप केवळज्ञान थाय
छे. आवी आनंदमय ज्ञानचेतना वडे आत्मानो महिमा छे, ते ज आत्मानो वैभव छे.
द्वेष वगरनी