: भादरवो : २४९६ आत्मधर्म : २७ :
छे. आवी ज्ञानचेतनावंत ज्ञानी सदा पोताना स्वभावने ज स्पर्शे छे–एटले तेने ज
तन्मयपणे अनुभवे छे; रागने जाणवा छतां तेमां कदी तन्मय थता नथी. हजारो सूर्यनां
तेज करतां पण अनंतगुणुं चैतन्यतेज जेमां प्रकाशे छे–एवी ज्ञानचेतना अपार
वैभवथी भरेली छे, रागादि विभावोथी ते अत्यंत मुक्त छे, त्रणेकाळनां कर्मोथी ते जुदी
छे. आवी चेतनानो चमकार थयो ते ज आत्मानो चमत्कार छे.
(समयसार कळश २२२–२२३ प्रवचनमांथी)
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अडोल साधक
जगतमां प्रतिकूळता ना डुंगरा तूटी पडता
होय, अज्ञानीओ सत्यधर्मनो विरोध
करता होय, अन्याय थतो होय, छतां
ज्ञानमां विकल्प करवानो के आकुळता
करवानो स्वभाव नथी; शुं सिद्धभगवंतो
आकुळता करे छे?–ना, प्रतिकूळताना
वायरामां एवी ताकात नथी के ज्ञानना
पहाडने डगावी द्ये. अनाकुळपणे रहेवानो
ज्ञाननो स्वभाव छे. आवा बेहद वीतराग
शांतस्वभावथी आत्मा भरेलो छे. अहा,
आत्मस्वभाव तो वीतरागी निर्मळ कार्य
ने ज करनारो ने आनंदनो ज देनारो छे.–
आवी आत्मसाधनाना पंथे चडेला
साधकने जगतनी कोई प्रतिकूळता डगावी
शकती नथी के मुंझवी शकती नथी.
आत्म–शांति
भाई, तारो आत्मस्वभाव एवो
छे के एनी सन्मुख परिणमतां
आनंदसहित निर्मळ सम्यक्त्वादिनो
उत्पाद थाय छे. जगतना कोलाहलथी शांत
थई, तारा स्वभावने लक्षमां ले. जगत शुं
करे छे ने जगत शुं बोले छे–तेनी साथे
तारा तत्त्वने संबंध नथी. केमके तारो
उत्पाद तारामांथी आवे छे, बीजामांथी
नथी आवतो.
स्वभावनुं भान थया छतां कांईक रागद्वेष
थाय तो ते कांई ज्ञानभावनुं कार्य नथी–
एम धर्मीने भिन्नतानुं भान छे, एटले ते
वखते पोतानो ज्ञानभाव चुकातो नथी.
“आत्मवैभव” मांथी