: भादरवो : २४९६ आत्मधर्म : २९ :
स्वभावना
महिमानी
मधुरी प्रसादी
लेखांक (२)
स. गा. ३२० नां प्रवचनोनो एक भाग गतांकमां आपेल
छे, तेनो बीजो भाग अहीं आपवामां आव्यो छे. ज्ञानस्वभावनो
कोई अपूर्व उल्लास लावीने फरी फरीने तेना महिमानुं ऊंडुं घोलन
करवुं ते आ प्रवचननो सार छे, ने ते ज अनुभवनी रीत छे.
आत्मानो शुद्ध स्वभाव केवो छो?–के जेने लक्षमां लेतां सम्यग्दर्शन थाय? तेनी
आ वात छे. बधा समुद्रोमां स्वयंभूरमण–समुद्र सौथी मोटो छे, ते स्वयंभूरमण समुद्र
करतां पण महान जेनो महिमा छे एवो ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा छे. शरीरादि
संयोग तो आत्माथी तद्न बहार छे, कर्म पण जड छे–आत्माथी भिन्न छे, राग पण
आत्मानुं स्वरूप नथी, ने एक पर्याय जेटलो पण आखो आत्मा नथी; एक समयमां
परम ज्ञानस्वभावे पूरो आत्मा छे; ते आत्मा ज्यारे स्वसन्मुख थईने शुद्धज्ञानरूपे
परिणमे छे त्यारे ते रागादिनो कर्ता–भोकता थतो नथी.–आवुं अकर्तापणुं ते धर्म अने
मोक्षमार्ग छे.
जीवादि साततत्त्वोमांथी पण पोतानो शुद्ध आत्मा ज खरेखर उपादेय छे.
परवस्तु क्यांय बहार रही गई, परभाव रागादि क्यांय रह्या, ने निर्मळ पर्यायना
भेदोनो पण धर्मीने आश्रय नथी; निर्मळपर्यायना भेदो उपादेय नथी; आत्माने
निर्णय अने ओळखाण करवी जोईए; पछी वारंवार अंतरमां तेनुं घोलन करतां
अनुभव अने सम्यग्दर्शन थाय छे. आ तो पोताना घरनी वस्तु छे; पोताना
अस्तित्वमां जे छे ते ज पोताने समजवानुं छे. पोताना स्वभावने भूलीने अत्यारसुधी
बहारमां नजर करी छे ने त्यां ज पोतानुं अस्तिपणुं मान्युं छे; तेने बदले अंतरमां
पोतानो जे स्वभाव छे तेमां नजर करवानी आ वात छे.
जे अखंड कारण परमात्मारूप आत्मा छे ते ज सम्यग्द्रष्टि जीवोने उपादेय छे;
आवो आत्मस्वभाव तो बधा जीवोमां छे, पण तेने सम्यग्द्रष्टि ज उपादेय करे छे, ते