फोन नं : ३४ “आत्मधर्म” Regd. No. G. 182
बार भावना *
(पं. जयचंदजी रचित)
(दोहा)
(१) द्रव्यरूप करि सर्व थिर, परजय थिर है कौन? द्रव्यद्रष्टि आपा लखो पर्ययनय करि गौन.
(२) शुद्धातम अरु पंचगुरु जगमें शरना दोय,
मोह उदय जीयके वृथा आन कल्यना होय.
(३) परद्रव्यनतें प्रीति जो है संसार अबोध, ताको फल गति चारमें भ्रमण कह्यो श्रुत शोध.
(४) परमारथतें आतमा एकरूप ही जोय, कर्मनिमित्त विकलप घने, तिन नाशे शिव होय.
(प) अमने अपने सत्त्वकुं सर्व वस्तु विलसाय, एसे चिंतवे जीव तब, परमें ममत न थाय.
(६) निर्मल अपनी आतमा देह अपावन गेह, जानी भव्य निज भावको, यासों तजो सनेह.
(७) आतम केवल ज्ञानमय निश्चयद्रष्टि निहार, सब विभाव परिणाममय आस्रवभाव विदार.
(८) निजस्वरूपमें लीनता निश्चय संवर जान, समिति गुप्ति संयम धरम धरें पापकी हान.
(९) संवरमय है आतमा पूर्वकर्म झड जाय, निजस्वरूपको पायकर लोकशिखर जब थाय.
(१०) लोकस्वरूप विचारिके आतमरूप निहाळ, परमारथ व्यवहार मुणि मिथ्याभाव निवार.
(११) बोधि आपका भाव है, निश्चय दुर्लभ नांही, भवमें प्राप्ति कठिन है यह व्यवहार कहाहिं.
(१२) दर्शन–ज्ञानमय चेतना, आतमधर्म वखाण, दया–क्षमादिक–रत्नत्रय यामें गर्भित जाण.
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क्ष मा भा व ना
आत्मधर्मनुं संपादन श्री परमपूज्य देव–गुरु–शास्त्र प्रत्ये संपूर्ण बहुमान अने
भक्तिपूर्वक, तेमनी आमन्यानुं पालन करीने, अने आत्मधर्मने जिनवाणीतुल्य
समजीने हृदयना भावथी करवामां आवे छे; आत्मधर्म द्वारा प्रत्यक्ष के परोक्ष रीते
हजारो साधर्मीजनोनो संपर्क थाय छे...अने अरसपरस हार्दिक वात्सल्यधर्मप्रेम वधे ते
रीते संपादन करवामां आवे छे. आमां कोई प्रकारे मारी भूलचूक थई होय, कोईने पण
माराथी दुःख थयुं होय तो निर्मळ अंतःकरणपूर्वक क्षमाभावना भावुं छुं.
–ब्र. हरिलाल
प्रकाशक: (सौराष्ट्र)
मुद्रक: मगनलाल जैन अजित मुद्रणालय: सोनगढ (सौराष्ट्र) प्रत: २८००