रत्नत्रयधारी मुनिराज! आपनां वीतरागी त्रण रत्नो पासे आ चक्रवर्तीनां चौद रत्नो
साव तुच्छ छे. आम अत्यंत भक्तिपूर्वक मुनिराजने त्रण प्रदक्षिणा करी, तेमने वंदन
कर्युं तथा स्तुति अने पूजा करी; पछी आत्माना हितनो उपदेश सांभळवानी जिज्ञासा
प्रगट करी.
छे–एम बताव्युं. हे जीव! आ संसारदुःखथी जो तुं छूटवा चाहतो हो तो आवी
चारित्रदशाने अंगीकार कर. राग आत्मानो स्वभाव नथी, राग तो दुःख छे; तेथी
क्यांय पण जराय राग न करतां, वीतराग थईने भव्य जीव भवसागरने तरे छे. हे
राजा! तुं पण आवा वीतराग धर्मने साधवा माटे तत्पर था. तने आत्मानुं भान तो छे
ने हवे थोडा ज भव बाकी छे, पछी तुं तीर्थंकर थईने मोक्ष पामीश.
थयुं ने धर्ममां तेनो उत्साह घणो वधी गयो. तेणे अत्यंत विनयपूर्वक मुनिराजनी पासे
मुनिदीक्षानी प्रार्थना करी.
देव! आ जगतमां मारो शुद्धआत्मा ज मारे माटे ध्रुव छे, शरीरादि समस्त संयोगो
अध्रुव छे, ते कोई मने शरणरूप नथी, समस्त परद्रव्यो अने परभावोथी अत्यंत जुदो,
ने ज्ञान–दर्शनथी परिपूर्ण मारो आत्मा एक छे–एम में जाण्युं छे. आनंदमय मारो
आत्मा ज पवित्र छे, शरीर अने रागादि आस्रवो तो अशुचीना भंडार छे. ते
अज्ञानमय आस्रवोने लीधे में संसारनी चार गतिमां भव करी करीने खूब दुःख
भोगव्यां. देवलोकमांय रागद्वेषथी दुःख थयो, मनुष्यमां पण ईष्टनो वियोग, अनिष्टनो
संयोग–एवा प्रसंगथी आर्तध्यान–रौद्रध्यान करीने दुःख थयो; क्यारेक पुत्र के भाई पण
वेरी थया, क्यारेक शरीरमां रोग–पीडा थई, तो क्यारेक मासिक पीडाथी दुःखी थयो,
तिर्यंच अने नरकना अवतारमां जे भयंकर दुःखो जीवे मोहथी अनंतवार भोगव्या–
तेनी तो शी वात? प्रभो! आ