: आसो : २४९६ आत्मधर्म : १३ :
दुःखमय संसारथी आप मारो उद्धार करो.......रत्नत्रयरूपी जहाज वडे आप आ
भवसमुद्रथी मने तारो. संसारमां सुख नथी तेथी तीर्थंकरो पण संसारने छोडीने मोक्षने
साधे छे. प्रभो! हुं पण मुनिदीक्षा लईने तीर्थंकरोना पंथे आववा चाहुं छुं.
मुनिराजे कह्युं–हे भव्य! तारी भावना उत्तम छे. संसारना सुखोथी जीवने कदी
संतोष थवानो नथी, मोक्षसुख ए ज साचुं सुख छे. जीवे भवचक्रमां भमतां भमतां
बीजा बधा भावो अनंतवार भाव्या छे, पण आत्मभावने कदी भाव्यो नथी,
सम्यक्त्वादि भावो कदी सेव्यां नथी. माटे आ मनुष्यअवतारमां तेनी ज भावना करवा
जेवी छे. तुं चक्रवर्तीराजने पण असार जाणीने छोडवा तैयार थयो छे अने सारभूत
रत्नत्रयने धारण करवा तैयार थयो छे, तेथी तने धन्य छे. आम कहीने ते मुनिराजे
वज्रनाभी चक्रवर्तीने मुनिपदनी दीक्षा आपी. ते चक्रवर्ती हवे राजपाट छोडीने
जिनमुद्राधारी मुनि थया. चक्रवर्तीनी छखंडनी विभूतिना उपभोगथी तेओ संतुष्ट न
थया तेथी मोक्षना अखंडसुखने साधवा माटे तत्पर थया. धन्य ते मुनिराज! तेमना
चरणोमां नमस्कार हो.–
धन्य मुनिश्वर आतमहितमें छोड दिया परिवार....कि तुमने छोडा सब संसार...
धन छोडा वैभव सब छोडा, जाना जगत असार.....कि तुमने छोडा सब संसार...
आत्मस्वरूपमें झुलते......करते निज आतम उद्धार.....कि तुमने छोडा सब संसार..
ऊंचा हाथीना होदे बेसनारा चक्रवर्ती हवे ऊघाडे पगे वनमां चालवा
लाग्या...रत्नमणि जडेला वस्त्र वगरना ते मुनिराज रत्नत्रयथी शोभवा लाग्या.
सोनानी थाळीमां जमनारा चक्रवर्ती हवे हाथमां ज भोजन लेवा लाग्या. एणे १४
रत्नो छोडीने त्रण रत्नो लीधां... नवनिधान छोडीने अखंड आनंदना निधानने साधवा
लाग्या...छन्नुं हजार राणीओ अने छन्नुं करोडनी सेना–ते बधायनो संग छोडीने,
असंगपणे वन–जंगलमां वसवा लाग्या, ने चैतन्यस्वरूप आत्मानुं ध्यान करवा लाग्या.
एकवार ते मुनिराज जंगलमां बेठा बेठा आत्मानुं ध्यान करी रह्या
हता...सिद्धभगवान जेवुं पोताना आत्मानुं सुख, तेनो वारंवार अनुभव करता
हता..जंगलमां आसपास शुं बनी रह्युं छे तेनुं तेमने लक्ष नथी...शरीरनुं पण लक्ष नथी,
देहथी भिन्न आत्मा–हुं ज परमात्मा छुं–एवा ध्यानमां एकाग्र हता.
एवामां........एवामां दूरथी सनसनाटी करतुं एक तीर आव्युं ने ए मुनिराजनुं शरीर
वींधाई गयुं........