Atmadharma magazine - Ank 324
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : आसो : २४९६
–क्यांथी आव्युं ए तीर? तेमनो पूर्वभवनो भाई, कमठनो जीव–के जे नरकमां
हतो अने त्यांथी नीकळीने कुरंग नामनो शिकारी भील थयो हतो तेणे ए तीर मार्युं
हतुं. ते भील आ वनमां रहेतो हतो, ने हाथमां धनुष–बाण लईने क्रूर भावथी हरण
वगेरे पशुओनी हिंसा करतो हतो; ते मांसनो लालचु हतो, आ रीते ते महान पाप
बांधी रह्यो हतो. वनमां फरतां फरतां ते भील, ज्यां मुनिराज ध्यानमां बेठा हता त्यां
आवी पहोंच्यो, ने मुनिराजने जोतां ज, परम भक्तिभाव आववाने बदले पूर्व भवना
संस्कारथी तेने क्रोध आव्यो, हाथमां बाण लईने तेणे मुनि तरफ ताक्युं ने ते बाणवडे
मुनिराजनुं शरीर वींधाई गयुं.
अरेरे! क्रोध केवो बुरो छे! क्यां जीवनो उपशांत स्वभाव! ने क्यां आ क्रोध!
क्रोधथी अंध थयेलो क्रूर जीव, आ नानकडा भगवान जेवा मुनिराजने पण ओळखी न
शक्यो...ने ध्यानमां स्थिर ए अहिंसक मुनिराजनी वगरकारणे हिंसा करीने ते जीवे
तीव्र अनंतानुबंधी क्रोधथी सातमी नरकनुं आयुष्य बांधी दीधुं. क्रोधथी भान भूलेला
जीवने एटलुं पण भान न रह्युं के आ क्रोधना फळमां केटला भयंकर दुःखो भोगववा
पडशे!
शरीर वींधाई गयुं छे तोपण मुनिराज तो पोताना आत्मस्वभावमां निश्चल छे,
एमना ध्यानमां कोई शत्रु के मित्र नथी, राग के द्वेष नथी, कोई पूजे के कोई बाण
मारे–ते बंने प्रत्ये समभाव छे, जीवन अने मरणमां पण तेमने समभाव छे, देहनुंय
तेमने ममत्व नथी, आत्माना आनंदमां एवा मशगुल छे के देह वींधावा छतां तेनुं दुःख
नथी; मोह होय तो दुःख थाय ने? निर्मोहीने दुःख शुं? ए तो निर्मोहपणे धर्मध्यानमां
ज एकाग्र छे. बाण मारनार भील उपर पण तेमने क्रोध थतो नथी. वाह रे वाह! धन्य
क्षमाना भंडार मुनिराज!
वहाला वांचक! तुं पण ए भील उपर क्रोध न करीश....पण क्षमाना भंडार
एवा मुनिराज पासेथी उत्तम क्षमाना पाठ शीखजे.
वज्रनाभी मुनिराज पोताना दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी आराधनामां अडग रह्या,
तेमां भंग पडवा न दीधो, धर्मध्यानमां एकाग्रतापूर्वक शरीर छोडीने तेमणे
समाधिमरण कर्युं अने मध्यम ग्रैवेयकमां अहमीन्द्र थया.
भीलनो जीव पोताना महापापनुं फळ भोगववा माटे सातमी नरकमां गयो.
रौद्रध्यानथी मुनिनी हत्या करी तेथी ते महा दुःखी थयो. संसारमां भमतां जीवे