मिथ्याद्रष्टिने ज संसार छे. समकिती तो ज्ञानानंदस्वभावनी द्रष्टिथी पोताना शुद्ध
स्वभावमां निश्चळ होवाथी खरेखर मुक्त ज छे,–
नैमित्तिकपणुं नथी. एटले संसार ज नथी. जेने ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि नथी एवा
मिथ्याद्रष्टिने ज कर्म साथे निमित्त–नैमित्तिकभावथी संसार छे. अहो, अंतर्मुख
ज्ञायकस्वभावरूप परिणम्यो तेमां संसार केवो?
पर्यायमां अनन्यपणे वर्ततुं द्रव्य ज तेने करे छे; बीजो तेमां तन्मय थतो नथी तो बीजो
तेमां शुं करे? मारी पर्यायमां कोण तन्मय छे?–के मारूं सर्वज्ञस्वभावी जीवद्रव्य ज मारी
पर्यायमां तन्मय छे. आवो निर्णय थतां अंदरमां ज्ञान अने रागनुं परिणमन जुदुं पडी
जाय छे एटले के अपूर्व भेदज्ञान थाय छे. ‘ज्ञान अने राग जुदा छे’–एम कहे पण
अंतरमां आवुं भेदज्ञान थया वगर ज्ञान अने रागने खरेखर जुदा जाण्या कहेवाय
नहीं. आ तो अंतरमां ऊतरवाना कोई अलौकिक रस्ता छे.
पर्यायने द्रवे छे, ते क्रमबद्ध–पर्यायरूपे परिणमे छे. ते कूटस्थ नथी तेम बीजो तेनो
परिणमावनार नथी. माटे हे ज्ञायकचिदानंद प्रभु! स्वसन्मुख थईने समये समये
ज्ञाताभावपणे ऊपजवुं ते तारुं स्वरूप छे; आवा तारा ज्ञायकतत्त्वने लक्षमां ले.
थको कर्मने अनुसरतो नथी, ज्ञायकने ज अनुसरे छे, ज्ञायक स्वभावमां एकता करीने
कर्म साथेनो निमित्तसंबंध तेणे तोडी नाख्यो छे एटले ते संसारपणे ऊपजतो नथी,