Atmadharma magazine - Ank 324
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: ४६ : आत्मधर्म : आसो : २४९६
आत्मानो अकर्तास्वभाव बतावीने पछी (गा. ३१२–३१३ मां) कहेशे के
ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिमां समकितीने संसार ज नथी; जेनी द्रष्टि कर्म उपर ज छे एवा
मिथ्याद्रष्टिने ज संसार छे. समकिती तो ज्ञानानंदस्वभावनी द्रष्टिथी पोताना शुद्ध
स्वभावमां निश्चळ होवाथी खरेखर मुक्त ज छे,–
शुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव।’
(जुओ कळश १९८)
ज्ञानीने ज्ञायकस्वभाव साथे संधि थई छे अर्थात् पर्याय ज्ञायकस्वभाव तरफ
वळी गई छे एटले कर्म साथेनी संधि तेने तूटी गई छे, तेने कर्म साथे निमित्त
नैमित्तिकपणुं नथी. एटले संसार ज नथी. जेने ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि नथी एवा
मिथ्याद्रष्टिने ज कर्म साथे निमित्त–नैमित्तिकभावथी संसार छे. अहो, अंतर्मुख
ज्ञायकस्वभावरूप परिणम्यो तेमां संसार केवो?
जुओ, आ सीधी–सादी छतां मूळभूत वात छे के दरेक द्रव्य जीव के अजीव सौ
पोतपोतानी क्रमबद्ध पर्यायपणे ऊपजे छे, बीजो कोई तेने उपजावतो नथी. पोतानी
पर्यायमां अनन्यपणे वर्ततुं द्रव्य ज तेने करे छे; बीजो तेमां तन्मय थतो नथी तो बीजो
तेमां शुं करे? मारी पर्यायमां कोण तन्मय छे?–के मारूं सर्वज्ञस्वभावी जीवद्रव्य ज मारी
पर्यायमां तन्मय छे. आवो निर्णय थतां अंदरमां ज्ञान अने रागनुं परिणमन जुदुं पडी
जाय छे एटले के अपूर्व भेदज्ञान थाय छे. ‘ज्ञान अने राग जुदा छे’–एम कहे पण
अंतरमां आवुं भेदज्ञान थया वगर ज्ञान अने रागने खरेखर जुदा जाण्या कहेवाय
नहीं. आ तो अंतरमां ऊतरवाना कोई अलौकिक रस्ता छे.
धर्मीजीव रागना कर्तापणे नथी ऊपजतो.–तो शुं कूटस्थ छे?–ना; ते पोताना
ज्ञानभावपणे उपजे छे. ‘जीव ऊपजे छे’ एटले के द्रव्य पोते परिणमतुं थकुं पोतानी
पर्यायने द्रवे छे, ते क्रमबद्ध–पर्यायरूपे परिणमे छे. ते कूटस्थ नथी तेम बीजो तेनो
परिणमावनार नथी. माटे हे ज्ञायकचिदानंद प्रभु! स्वसन्मुख थईने समये समये
ज्ञाताभावपणे ऊपजवुं ते तारुं स्वरूप छे; आवा तारा ज्ञायकतत्त्वने लक्षमां ले.
अज्ञानी पोताना ज्ञायकतत्त्वने भूलीने, कर्म तरफना भावोमां ज अनन्यपणुं
मानीने संसारपणे ऊपजे छे; ज्ञानी तो पोताना ज्ञायक भावमां ज अनन्यरूपे ऊपजतो
थको कर्मने अनुसरतो नथी, ज्ञायकने ज अनुसरे छे, ज्ञायक स्वभावमां एकता करीने
कर्म साथेनो निमित्तसंबंध तेणे तोडी नाख्यो छे एटले ते संसारपणे ऊपजतो नथी,