Atmadharma magazine - Ank 324
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४९६ आत्मधर्म : ४७ :
तेथी ते मुक्त ज छे–एम कहेवामां आव्युं छे. स्वद्रव्यना स्वभावने लक्षमां लईने समजे
तेने ज आ समजाय तेवुं छे. अहा, जेम भगवान एकला ज्ञायकभावपणे ज परिणमे छे
तेम साधकज्ञानी पण पोताना ज्ञायकस्वभावना अवलंबने ज्ञानभावमां ज तन्मयपणे
परिणमे छे; तेमां रागनुं कर्तृत्व जराय नथी.
जुओ, आ जीवनी प्रभुता! प्रभु! तारी प्रभुता तारा ज्ञायक–स्वभावना
अवलंबनमां छे, अजीवना अवलंबनमां तारी प्रभुता नथी, तेमां तो तारी पराधीनता
छे. राग परिणाममांय तारी प्रभुता नथी, तारा ज्ञायकभावना परिणमनमां ज तारी
प्रभुता छे. पर्याये–पर्याये अखंड प्रभुता वर्ती रही छे तेने तुं देख?–केमके दरेक पर्यायमां
स्वद्रव्य ज तन्मयपणे वर्ती रह्युं छे. एक्केय पर्याय स्वद्रव्यने छोडीने थती नथी. आम
धर्मी स्वद्रव्यनी सन्मुखताथी निर्मळ ज्ञानने ज करे छे. ज्ञान कहेतां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र बधी निर्मळपर्यायो समजवी.
हे भाई! एकवार तुं स्वभावसन्मुख था, ने ज्ञायकस्वभावने प्रतीतमां लईने
तारा श्रद्धा–ज्ञानने साचा बनाव. उपयोगने अंतरमां वाळीने ‘हुं ज्ञायक छुं’ एवुं
ज्यांसुधी वेदन न थाय त्यांसुधी सम्यग्दर्शन थाय नहि ने ऊंधी मान्यता मटे नहीं.
ज्ञानने अंतरमां वाळीने आत्मामां एकाग्र कर्युं त्यां ते ज्ञानपर्याय रागथी जुदी
परिणमी, तेमां मोक्षमार्ग आवी गयो; ने जैनशासननो सार तेमां समाई गयो.
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पर्यायने स्वद्रव्य साथे तन्मयता थतां ते पर्यायमां निर्मळ ज्ञान ने
आनंद थाय पण राग–द्वेष न थाय. केमके आत्माना स्वभावमां राग–
द्वेष नथी.
परचीजमां आत्माना गुण नथी एटले परचीज आत्माने गुण आपती
नथी, माटे परचीज उपर एकत्वबुद्धिथी राग धर्मीने थतो नथी.
राग ते कांई जीवनो ज्ञानभाव नथी. ज्ञानभाव ते ज जीव छे, तेमां
राग नथी; राग ते अज्ञानमय भाव छे, ते ज्ञानमय नथी.
धर्मीनी द्रष्टि ज्ञानमय आत्मामां छे तेथी तेनी पर्यायो पण ज्ञानमय ज
छे; एटले ते ‘धर्मीना द्रव्यमां––गुणमां के पर्यायमां’ क्यांय राग नथी.
बहारमां परद्रव्यमां फां–फां मारवानुं छोड अने सीधो तारा
ज्ञानस्वभावमां घूसीने तेने अनुभवमां ले,–ए सिवाय क्यांय आरो
आवे तेम नथी.