
ज्ञानचेतनारूप शुद्धभाव प्रगट करवा अर्थे ज
छे. एवा शुद्धभाव वगरनुं पठन–श्रवण जीवने
मोक्ष माटे कार्यकारी नथी. सम्यक्त्वादि
शुद्धभाव ज मोक्षने माटे कार्यकारी छे; ने ते ज
वांचन–श्रवणनो सार छे.
पर्यायो ज्ञाननी ज छे, ज्ञानस्वभावनी भावनाथी ज ते पर्यायो प्रगटे छे. माटे तुं
ज्ञानस्वभावनी भावना कर. ज्ञाननी भावना अर्थे ज शास्त्रनुं पठन–श्रवण छे; ने
शास्त्रो पण एम ज कहे छे के तुं ज्ञाननो अनुभव कर.
आत्माना स्वभावनी सन्मुख थया विना एकला बाह्यवलणथी श्रवण–पठन करवाथी
जीवने शुं लाभ छे? तेमां तो विकल्पनो कलेश छे, एमां कांई आनंदनुं वेदन नथी.
जेनाथी भावशुद्धि न थाय, ने जेमां आनंदनुं वेदन न थाय, एवा पठन–श्रवणथी
जीवने शुं लाभ? श्रावकधर्म के मुनिधर्म तेनुं कारण तो निश्चय सम्यग्दर्शनादि शुद्धभाव
ज छे. भावशुद्धि वगरनी बधी क्रियाओ ते तो मात्र खेद छे.
ज्ञानचेतना खीली कहेवाय, ने तेने सम्यक्त्वादिरूप ‘भाव’ प्रगट्या छे. आवा भाव
वडे ज सिद्धि पमाय छे.