दीवाळी अंक २४९७ आत्मधर्म : २९ :
अमृतचंद्रसूरि पीवडावे छे–
अनेकान्तनां अमृत
(१४ बोल वडे ज्ञानमात्र आत्माना अनेकान्तस्वरूपनी समजण)
गुरुदेव वारंवार कहे छे के अहो! आ अनेकांत
तो जैनदर्शनना प्राण छे; आ अनेकान्त ज्ञानस्वरूप
आत्माने प्रसिद्ध करीने साचुं जीवन जीवाडे छे. आ
अनेकान्तनुं स्वरूप समजावीने आचार्यदेवे वीतरागी
अमृत पीवडाव्या छे. दीवाळीनी बोणीमां आ
अनेकांतनां अमृत पीरसाय छे.
‘लीजिये......अमृतरस पीजिये....स्वानुभव
कीजिये’ .
समयसारनी ४१प गाथामां आचार्यदेवे घणा प्रकारे स्पष्टता करीने ज्ञानस्वरूप
हवे आत्माने ‘ज्ञानमात्र’ कह्यो तेमां बीजा धर्मो क््या प्रकारे छे? ‘ज्ञानमात्र’
आत्मा ज्ञानमात्र छे एम कहेतां एकान्त थई जतो नथी पण ज्ञानमात्र
आत्मामां स्वयमेव अनेकान्त प्रकाशे छे. ‘ज्ञानमात्र’ कहेतां ज्ञानथी विरुद्ध एवा
अन्यभावोनो आत्मामांथी निषेध थाय छे, पण ज्ञान साथेना बीजा धर्मोनो कांई
निषेध थतो नथी. ज्ञानस्वरूप आत्मामां तत्पणुं –अतत्पणुं, एकपणुं–अनेकपणुं,
सत्पणुं–असत्पणुं अने नित्यपणुं–अनित्यपणुं वगेरे अनेक धर्मो छे, एटले तेने
अनेकांतपणुं छे. अनेकान्तना उपदेश वडे सर्वज्ञभगवाने ज्ञानस्वभावी आत्माने प्रसिद्ध
कर्यो छे. अनेकान्त कई रीते आत्माने प्रसिद्ध करे छे ते वात अहीं १४ बोल वडे
आचार्यदेव समजावे छे:–