: ३० : आत्मधर्म दीवाळी अंक २४९७
(१) ज्ञानमात्र आत्माने स्वरूपथी तत्पणुं छे; (२) पररूपथी अतत्पणुं छे.
(३) ज्ञानमात्र आत्माने द्रव्यथी एकपणुं छे; (४) पर्यायथी अनेकपणुं छे.
(प) ज्ञानमात्र भावने स्वद्रव्यथी सत्पणुं छे; (६) परद्रव्योथी असत्पणुं छे.
(७) ज्ञानमात्र भावने स्वक्षेत्रथी अस्तिपणुं छे; (८) परक्षेत्रथी नास्तिपणुं छे.
(९) ज्ञानमात्र भावने स्वकाळथी सत्पणुं छे; (१०) परकाळथी असत्पणुं छे.
(११) ज्ञानमात्र आत्माने स्व–भावथी सत्पणुं छे; (१२) परभावथी असत्पणुं छे.
(१३) ज्ञानमात्र भावने ज्ञानसामान्यरूपे नित्यपणुं छे; (१४) ज्ञानविशेषरूपे अनित्यपणुं छे.
–आ रीते अनेकान्त वडे आत्मानुं स्वरूप बराबर समजाय छे. आव १४ बोल
दरेक आत्मामां एकसाथे वर्ती रह्या छे. परभावोथी जुदो ज्ञानस्वरूप आत्मा हुं छुं–एम
समजतां अनेकान्तना आ १४ बोल एकसाथे, तेमां समाई जाय छे. ‘ज्ञानमय हुं छुं’
एम स्वसन्मुख थईने अनुभव करतां, ‘ज्ञानथी विरुद्ध अन्यवस्तु हुं नथी’ एम परनी
नास्ति पण तेमां आवी ज जाय छे एटले ज्ञानने अनेकान्तपणुं स्वयमेव पोताना
स्वभावथी प्रकाशे छे. आवो अनेकान्त छे ते आत्माने जीवाडनार छे.
हुं मारा ज्ञानस्वरूपथी तत्रूप छुं ने परसाथे तद्रूप हुं नथी –एम अनेकान्त वडे
आत्मानो उद्धार थाय छे, एटले के अनेकान्त वडे ज्ञानस्वरूप आत्मानो निर्णय करतां
ज्ञान ज्ञानरूपे परिणमे छे, ने विपरीतभावरूपे परिणमतुं नथी; आ रीते ज्ञानजीवनपणे
आत्मा जीवतो रहे छे. अज्ञानदशामां जीव पररूपे पोताने मानतो त्यारे मिथ्याभावने
लीधे तेने भावमरण थतुं हतुं, ज्ञाननुं ज्ञानजीवन (ज्ञानपरिणमन) रहेतुं न हतुं;
अनेकान्त ते भावमरणथी बचावे छे, ने ज्ञानजीवनपणे आत्माने जीवाडे छे. आ रीते
अनेकान्त ते जीवन छे, अनेकान्त ते अमृत छे; अनेकान्त ते जैनशासननो सार छे,
तेना वडे ज्ञानस्वरूप आत्मानो अनुभव थाय छे. आवा अनेकान्तना १४ बोलना
विस्तार वडे आचार्यदेव ज्ञानस्वरूप आत्माने प्रसिद्ध करे छे; एटले अनेकान्तना आ
१४ बोल वडे ज्ञानस्वरूप आत्मानो निर्णय करतां तेनो अनुभव थाय छे. आत्मानो
अनुभव थाय एनुं नाम ज आत्मानी प्रसिद्धि छे. आत्मानी आवी प्रसिद्धि माटे अहीं
अनेकान्तना १४ बोलनो विस्तार करे छे.
(१–२) ज्ञानस्वरूप आत्माने स्वरूपथी तत्पणुं, ने पररूपथी अतत्पणुं
आत्माने पोताना ज्ञानस्वरूप साथे तन्मयपणुं छे, तेथी पोताना स्वरूपथी