Atmadharma magazine - Ank 325
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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“प्रभुजी! तारा पगले–पगले मारे आववुं रे......”
ऋषभादि जिनवर ए रीते करी श्रेष्ठ भक्ति योगनी,
शिवसौख्य पाम्या; तेथी कर तुं भक्ति उत्तम योगनी.
आ भारतवर्षमां पूर्वे श्री ऋषभदेवथी मांडीने वर्द्धमान सुधीना
चोवीस तीर्थंकर परमदेवो–के जेओ सर्वज्ञ वीतराग, त्रिलोकवर्ती कीर्तिवाळा
महा देवाधिदेव परमेश्वर हता, तेओ बधाय निज–आत्मा साथे संबंध
राखनारी शुद्ध निश्चययोगनी उत्तम भक्ति करीने परम निर्वाणने पाम्या,
ने अत्यंत आनंदरूपी परम सुधारस वडे परितृप्त थया. माटे हे प्रगट
भव्यत्वगुणवाळा महाजनो! तमे निजात्माने परम वीतराग सुख देनारी
एवी ते योगभक्ति करो.
हे वीरनाथ! सम्यग्ज्ञानरूपी नौकामां आरोहण करीने आप
भवसागरने ओळंगी गया ने झडपथी शाश्वतपुरी एवा सिद्धालयमां
पहोंच्या, हे जिननाथ! हवे हुं पण आपना ज मार्गे ते शाश्वतपुरीमां
आवुं छुं. आ लोकमां उत्तम पुरुषोने जिनमार्ग सिवाय बीजुं शुं शरण छे?