Atmadharma magazine - Ank 325
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म दीवाळी अंक २४९७
मोक्षने साधवानी रीत
मारा सम्यक्त्वादि भावनुं कारण मारो आत्मा ज छे
पोताना मोक्षने साधवानी रीत जाणीने मुमुक्षु
महा आनंदित थाय छे. अहा, महावीर भगवाने जे
मार्गथी मोक्षने साध्यो ते ज मार्ग ‘आजे’ मने प्राप्त
थयो...... मारा मोक्षनुं कारण मारामां ज छे–एम
अंतर्मुख अवलोकनवडे धर्मी जीव आनंदथी मोक्ष
साधे छे, तेनुं आ वर्णन छे.
(आसो वद चोथना प्रवचनमांथी : भावप्राभृत गाथा प६ थी ६०)
* * * * *
आत्माना शुद्धभावरूप जे भावलिंग ते मोक्षनुं कारण छे; ते भावलिंगना धारक
साधु केवा होय? तेमने आत्मानो अनुभव केवो होय? तेनी आ वात छे. प्रथम तो
देहथी भिन्न ज्ञानस्वरूप आत्माने जाणीने जेमणे देहनुं ममत्व छोडी दीधुं छे, अने
अंतरमां क्रोध–मानादि कषायो छोडीने आत्माना स्वरूपमां जे एकाग्र छे ते भावलिंगी
साधु छे. आ रीते मोहादि रहित आत्माना शुद्धपरिणाम, स्वाभाविक ज्ञानचेतनारूप
भाव, ते मोक्षनुं साधन छे.
सर्वत्र ममत्वने छोडीने निर्मोह थईने धर्मीजीव पोताना आत्मानुं ज अवलंबन
ल्ये छे.–
परिवर्जुं छुं हुं ममत्वने, निर्ममपणे स्थित हुं रहुं,
अवलंबुं छुं मुज आत्मने, अवशेष सर्वे परिहरुं.
(भावपाहुड गाथा ५७; नियमसार गाथा.९९)
आ रीते पोताना आत्माना ज अवलंबने जे निर्मोहरूप सम्यक्त्वादि शुद्धभाव
प्रगटे ते मुनिनुं भावलिंग छे. आवा शुद्धस्वभाव वगर साधुपणुं होतुं नथी.
शुद्धभावमां पोताना आत्मा सिवाय कोई बीजानुं अवलंबन नथी.