Atmadharma magazine - Ank 326
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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:मागशरः२४९७ आत्मधर्म :३१:
छे, ने ज्ञान परज्ञेयोरूपे परिणमतुं नथी एटले ज्ञाननुं परभावपणे असत्पणुं छे. आवुं
अनेकान्त ज्ञान ते आत्मानुं स्वरूप छे.
मारा ज्ञानस्वभावमां अचिंत्य शक्तिरूप जे भाव छे ते माराथी ज सत् छे;
अनंत सुख अनंत परमेश्वरतारूप मारो भाव तेनाथी मारुं ज्ञान सत् छे; ने जे अन्य
परभावो तेनाथी ज्ञान असत् छे एटले के ज्ञान ते परभावोरूपे थतुं नथी. अहो,
ज्ञाननो पोतानो सत्भाव केवो छे. ने परभावोथी तेने भिन्नता कई रीते छे ते
अनेकान्तवडे ज समजाय छे.
केवळज्ञानादि अचिंत्य सामर्थ्यथी भरेला ज्ञायकभावरूप जे निजभाव छे ते
रूपे मारुं ज्ञान सत् छे; अने वज्रर्षभनाराचसंहनन वगेरे जे पुद्गलना भाव छे ते
परभावरूपे मारुं ज्ञान परिणमतुं नथी एटले तेनाथी नास्तिरूप छे; मारुं ज्ञान
पोते ज आवुं अनेकान्तस्वरूप छे. मारा ज्ञानमां परभावो जणाय भले, पण मारुं
ज्ञान कांई ते परभावरूपे परिणमतुं नथी, एनाथी कांई मारुं जीवन नथी, एने
लीधे ज्ञाननुं अस्तित्व नथी. ज्ञायकभावरूप जे निजभाव छे तेनाथी ज मारुं जीवन
छे, तेमां ज मारुं अस्तित्व छे. ज्ञान पोताना निजभावने कदी छोडतुं नथी ने
परभावने ग्रहतुं नथी–आम अनेकान्त वडे स्वभाव अने परभावनी अत्यंत
भिन्नता जाणीने ज्ञानी परभावोथी भिन्नपणे अने निजस्वभावथी अभिन्नपणे
आत्माने जीवाडे छे–एटले के आत्माने आवा सम्यग्ज्ञानरूप परिणमावे छे. ज्ञानना
परिणमनमां परभावना अंशने पण ते भेळवता नथी; ज्ञानरूपे ज परिणमता थका
मोक्षने साधे छे.
अहो, आ अनेकान्त ते जैनधर्मनुं मूळ छे ने तेना वडे संसारनो पार पमाय छे.
१३–१४ ज्ञानसामान्यरूपे नित्यपणुं; ज्ञानविशेषरूपे अनित्यपणुं
चेतनस्वभावनो पिंड आत्मा, तेमां जड शरीरनी तो वात नथी, रागनो पण
चेतनभावमां प्रवेश नथी; हवे ज्ञानमां ने ज्ञानमां बधी रमत छे. चेतनस्वरूप आत्माने
सामान्यज्ञानरूपे जोतां तेने नित्यपणुं छे; अने क्षणेक्षणे पलटती विशेषज्ञानपर्यायरूपे
जोतां तेने अनित्यपणुं छे. आवा बंने धर्मो ज्ञानमां समाय छे–एवुं ज्ञाननुं अनेकान्त
स्वरूप छे.
ज्ञानमां अनित्यपर्यायोने देखीने भ्रमथी अज्ञानीने एम लागे छे के ‘अरे,