तारा ज्ञाननुं नित्यपणुं कांई मटी गयुं नथी. नित्य टकवा छतां तेमां परिणमन पण छे,
ए रीते ज्ञानमां पर्यायअपेक्षाए अनित्यपणुं होवुं ते कांई दोष नथी. रागादि भावो ते
दोष छे, पण अनित्यपणुं तो ज्ञाननुं स्वरूप ज छे. नित्यपणुं अने अनित्यपणुं ए बंने
ज्ञानमात्र भावमां समाय छे, एवुं अनेकान्तस्वरूप ज्ञान छे.
चैतन्यनुं नित्यपणुं बतावे छे के भाई! अवस्थाओ पलटती होवा छतां ज्ञानतत्त्व
ध्रुवपणे नित्य टकनारुं छे. पलटे पण छे अने नित्य टके पण छे–एम बंने स्वभावरूप
ज्ञानने अनेकान्त प्रकाशे छे. धु्रव न माने ने एकली पर्याय माने, अथवा पर्यायथी
अनित्यता न माने ने एकली ध्रुवता माने, तो तेने ज्ञानतत्त्व प्राप्त थतुं नथी. ज्ञान तो
एकरूप ज जोईए, तेमां वळी अनेकपणुं शुं? अनेक प्रकाररूप चैतन्यपरिणमन शुं? –
एम कल्पीने पोतानी चैतन्यपरिणतिने ज अज्ञानी छोडी देवा मागे छे, पण स्वयमेव
प्रकाशतुं अनेकान्तमय ज्ञानतत्त्व, तेने जाणनार ज्ञानी तो एम अनुभवे छे के नित्य
उदित एवुं मारुं ज्ञान ज आ भिन्न भिन्न चैतन्यपरिणतिरूपे परिणमे छे. आम
पर्यायने ध्रुवज्ञानमां वाळीने ते पोताना ज्ञानने स्पर्शीने आनंदने अनुभवे छे.
पोतानी निर्मळ चैतन्यपरिणतिमां उल्लसे छे; तेनाथी आत्मा जुदो नथी. एकांतवादी ते
उल्लसती निर्मळ चैतन्यपरिणतिथी जुदुं आत्मतत्त्व ईच्छे छे; पण भाई! चैतन्यवस्तु
पोतानी वृत्तिना प्रवाहमां वर्ते छे, ते चैतन्यवृत्तिथी जुदो तो आत्मा होतो नथी.
आनंद पमाडे छे.
निर्मळ–चैतन्यपरिणामरूपे पण ते थाय छे. ज्ञानमां उल्लसती जे निर्मळपरिणति, ते
उल्लसती चेतनापरिणति आत्माथी कांई जुदी नथी. एकांत धु्रवनी