Atmadharma magazine - Ank 327
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४९७ आत्मधर्म : २५ :
परमार्थस्वरूप अभेद आत्माने द्रष्टिमां लईने तेनो अनुभव करतां तेमां
गुणभेद के पर्यायभेद देखाता नथी, तेमां राग के परद्रव्यनो संबंध नथी. आवी
द्रष्टिपूर्वक पर्यायनुं पण ज्ञान धर्मी करे छे ते व्यवहार छे. पोतानी शुद्धपर्यायने भेद
पाडीने जाणवी ते पण व्यवहार छे; अने ते भूमिकामां जिनेन्द्रभगवाननी भक्तिनो
भाव, गुरुना बहुमाननो भाव, शास्त्ररचना वगेरेनो भाव, गृहस्थने जिनपूजा,
आहारदान वगेरेनो भाव–एवा भावोने ते–ते काळे धर्मी जाणे छे ते व्यवहार छे.
ज्ञानमां ज्ञेयपणे ते ते प्रकारनो व्यवहार जणाय छे. व्यवहारमां तन्मय थया वगर
साधक तेने जाणे छे. शुद्ध द्रव्यना ज्ञान साथे पोतानी पर्यायनुं पण ज्ञान होय छे, अने
ते ज्ञान साधकने ते–ते काळे प्रयोजनवान छे. ते काळे एटले ज्यारे विकल्प छे, पर्याय
उपर लक्ष जाय छे त्यारे ते पर्यायनुं ज्ञान करे छे. जेने शुद्धात्माना अनुभवमां लीनता
ज छे, तेने तो विकल्प ज नथी, पर्यायना भेदनुं लक्ष ज नथी, एटले तेने ते व्यवहारने
जाणवानुं प्रयोजन रह्युं नथी, ते तो साक्षात् परमार्थ शुद्धात्माने ज अनुभवे छे.
सम्यग्द्रष्टिजीवनी नानामां नानी दशाने ज्ञाननी जघन्य दशा कहेवाय छे,
केवळज्ञान थाय ते ज्ञाननो उत्कृष्टभाव छे. ए सिवायना साधकदशाना जेटला प्रकारो छे
ते बधा मध्यमभाव छे. हवे व्यवहारनय तो परद्रव्यना संबंधथी अशुद्धभावने कहेनारो
छे, एटले पर्यायनी अशुद्धताने ते देखाडे छे. परमार्थमां शुद्ध आत्मानो ज अनुभव छे.
साधकने आवा आत्मानो अनुभव पण थयो छे एटले पर्यायमां केटलीक शुद्धता प्रगटी
छे, अने हजी पर्यायमां केटलीक अशुद्धता पण छे, सविकल्पदशामां रागादि भावो थाय
छे. –आम बंने प्रकार साधकने एक साथे वर्ते छे. तेमां ज्यारे परम शुद्ध स्वभावना
अनुभवमां स्थिर नथी ने विकल्पदशामां छे त्यारे पर्यायनी शुद्धता–अशुद्धता वगेरे
प्रकारोरूप व्यवहारने पण ते जाणे छे, –व्यवहारमां उत्सुकता न होवा छतां व्यवहारना
प्रकारो तेना ज्ञानमां ज्ञेयपणे जणाई जाय छे. –आवुं स्व–पर प्रकाशकज्ञान प्रयोजनवान
छे; रागनो के व्यवहारनो आश्रय करवा जेवो छे–एवो आनो अर्थ नथी; पण ज्ञानमां
जणायेलो ते व्यवहार प्रयोजनवान छे. ‘ते काळे प्रयोजनवान’ –एम