आवुं सत्य मळे ते माटे सहेलुं अने सस्तुं साहित्य खूब प्रचार करवा जेवुं छे. बीजे
ठेकाणे मोटा खर्चा करवा करतां आवा परम सत्यनो प्रचार थाय तेवुं साहित्य
‘सहेलुं अने सस्तुं’ खूब बहार आवे ते करवा जेवुं छे. जो के सोनगढथी घणुं
बहार पडी गयां छे, छतां हजी घणुं साहित्य सौने समजाय तेवी सहेली भाषामां
ने सस्ती किंमतमां वधु ने वधु बहार आवे ने साचा ज्ञाननो प्रचार थाय तेवुं
करवा जेवुं छे. अत्यारे तत्त्वना जिज्ञासु घणा लोको तैयार थया छे, ने आत्माना
स्वभावनी आवी ऊंची वात प्रेमथी सांभळे छे. जिज्ञासु लोकोना भाग्ये आवुं
वीतरागी सत्य बहार आव्युं छे.
जणाई जाय छे; पण अंतरमां उपयोगने जोडीने शुद्धआत्माने जे अनुभवे छे तेने
लक्ष पण नथी. व्यवहारना काळे व्यवहारनुं ज्ञान होय छे, तेथी ते काळे ते
व्यवहारनुं ज्ञान प्रयोजनवान छे. पण शुद्धआत्मानी अनुभूतिना निर्विकल्प आनंद
टाणे तो व्यवहारनुं कांई प्रयोजन नथी, तेमां तो अभेदनो ज साक्षात् अनुभव छे.
पर्यायमां भले रागादि हो, पण शुद्धनयवडे जोतां राग एककोर रही जाय छे ने
शुद्धआत्मा परमभावरूपे अनुभवाय छे. आवो अनुभव ते आत्मानुं जीवन छे, ते
सम्यग्दर्शन छे. जेम सोनी सोनुं अने लाखने भेगां गणीने किंमत नथी गणतो,
पण लाखने जुदी पाडीने एकला सोनानी किंमत गणे छे, तेम शुद्धनयवाळा ज्ञानी,
आत्माने अने रागने भेळसेळ गणीने आत्मानी किंमत नथी गणता, पण रागने
आत्माने अनुभवे छे; ते ज सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान छे; ते ज मुमुक्षु जीवनुं
जीवन छे.
पर्यायना भेदो पण व्यवहारनयना विषयमां छे, शुद्धआत्मानी अनुभूतिमां ते
भेदो नथी, माटे ते अभूतार्थ छे. वस्तुनुं स्वरूप समजाववा माटे भेदरूप
व्यवहारनो उपदेश तो घणो