Atmadharma magazine - Ank 327
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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फोन नं. : ३४ “आत्मधर्म” Regd. No. G. 182
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आत्मधर्म वांच्युं ने एमनुं जैनत्व जागी ऊठयुं
जैनकुळमां जन्मवा छतां जैनधर्मना संस्कार भूली गयेला एक भाई (आग्राना श्री
वी. के. जैन) लखे छे के–हुं आत्मधर्मनो नवो सभ्य आ वर्षे ज थयो छुं: में आत्मधर्मना
सात अंक वांच्या, ते प्रवचनोमां चैतन्यआत्माना ज्ञाननी अनोखी सुझनुं दिग्दर्शन मळ्‌युं्र;
निश्चयमार्गमां भला प्रकारे देखाडेलुं जीव अने कर्मना विभागनुं ज्ञान, तथा
परमात्मस्वरूपमां लीन थईने शाश्वत निर्वाणस्थान–मोक्ष थवानुं बताव्युं.
हुं त्रीस ३० वर्षथी दिगंबर जैनपरिवारनो सभ्य छुं; परंतु मारा संस्कार अने दोस्ती
अन्यवर्गना लोको साथे अधिक होवाथी ते अन्य मतनुं साहित्य में वांच्युं परिणामे
जैनधर्मना सिद्धांतथी अनभिज्ञ रह्यो. परंतु आत्मधर्म द्वारा स्व–परनुं भेदज्ञान अने जीवनी
दशाओनुं (बहिरात्मा–अंतरात्मा–परमात्मानुं) स्वरूप वांचवाथी वास्तविकतानुं कंईक लक्ष
जागृत थयुं.
आ आत्मा कोई परमात्मामां समाई जाय छे, अने तेनुं पोतानुं निज अस्तित्व कांई
रहेतुं नथी–एवा संस्कार हता; तेनाथी विपरीत आत्मधर्ममां वांचता ए सिद्ध थयुं के प्रत्येक
आत्मामां स्वयं निजसत्ताना आधारे परमात्मा बनवानी पूर्ण ताकात विद्यमान छे; एकेक
आत्मा (बीजामां भळ्‌या वगर) स्वयं पोते ज परमात्मा थाय छे, ने पोतानी भिन्न सत्ता
राखे छे–एम परमपूज्य कानजीस्वामीना प्रवचनथी समजायुं, सच बात तो यह है कि
आत्मधर्मने मेरे दिल–दिमागमें एक नवीन प्रकारकी हलचल पेदा करी दी है. पूज्य
कानजीस्वामीका प्रवचन पढनेका मेरा पहला अवसर रहा हैं, उनके प्रवचनोंको पढकर ऐसा
महसुस होता है कि मैं हृदयमें एवं अपनी आत्मामें ईनको उतार लुं. ‘भावना है ऐसी मेरी
सदा पाता रहूं ज्ञान तुम्हारा
(आजे ‘जेन लखावो’ माटेनुं जे जोसदार आंदोलन ऊपडयुं छे, तेनाथी पण घणुं
वधु जोसदार आंदोलन “जैनोने तेमनुं जैनत्व समजाववा” माटे करवानी जरूर छे; केमके
जैनो पोते ज पोताना जैनत्वने अने जैन सिद्धांतोने भूली जशे–तो जैनसमाजनी उन्नत्ति
कोना बळथी थशे? माटे जैन समाजनो एकएक बच्चो जैनसिद्धांतनी विशेषताने जाणतो
थाय, ने जैन समाजना एकएक बाळकने पहेलेथी ज जैनसिद्धान्तनुं ज्ञान मळे–ते माटे
जैनसमाजे जागृत थवानी जरूर छे. जैनबंधुओ ! चालो....परस्परना झघडा छोडो.....ने
जैनसिद्धांतना प्रचारमां लागी जाओ. –जैनोने जैनत्वनां उत्तम संस्कार आपो......ने
महावीरशासनने शोभावो. * – ब्र. ह. जैन
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प्रकाशक : (सौराष्ट्र)
मुद्रक : मगनलाल जैन. अजित मुद्रणालय : सोनगढ (सौराष्ट्र) प्रत: २८००