रागतणुं पण नहीं आलंबन स्वयं ज्योति छो आनंदधाम;
रत्नत्रय आभूषण साचुं, जड आभूषणनुं नहीं काम,
त्रण लोकना मुगट स्वयं छो, शुं छे स्वर्णमुगटनुं काम?
सिंहासन भले हो नीचे पण नहीं आप सिंहासन पर,
अंतरीक्ष छो आप ज साचा बिराजो जगके उपर;
वस्त्र–मुगट अहीं प्यारा अमने प्यारा सच्चा आतमराम,
राज–मुगटने छोडया प्रभुजी! फिर चढानेका कया काम?
अहो! प्रभुजी पारस प्यारा ज्ञानी हदयमें तुमरा वास,
राग–वस्त्रमें वास न तेरा वीतरागता तारी खास;
आनंदमंगल दर्शन तुमारा कलेशतणुं ज्यां छे नहीं काम;
एवा साचा देव दिगंबर, सम्यक् भावे हरि–प्रणाम.