Atmadharma magazine - Ank 330
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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फोन नं. : ३४ “आत्मधर्म” Regd. No. G. 187
हे जीव! पोताना आत्महितमां तत्पर शा
‘मुनिए निरंतर मौनव्रत सह साधवुं निज कार्यने.’
केवळ स्वकार्यमां परायण परम जिन योगीश्वरे मौनव्रतसहित निजकार्यने
साधवुं, समस्त पशुसमान मूर्ख मनुष्योवडे निंदवामां आवतो होय तोपण, छिन्नभिन्न
थया वगरनो अभिन्न रहीने निजकार्यने निरंतर साधवुं, –के जे मोक्षसुखनुं कारण छे.
आत्मज्ञानी मुमुक्षु जीव लौकिक भयने छोडीने, मुक्तिने माटे पोते पोतानाथी
पोतानामां अविचळ स्थिति करे छे.
* * *
छे जीव विधविध, कर्म विधविध, लब्धि छे विधविध अरे!
ते कारणे निज–परसमय सह वाद परिहर्तव्य छे.
जगतमां जीवो, तेमनां कर्म, तेमनी लब्धिओ वगेरे अनेक प्रकारनां छे; तेथी
सर्व जीवो समान विचारना थाय ते बनवुं असंभवित छे. माटे परजीवोने समजावी
देवानी आकुळता करवी योग्य नथी. पोताना निजहितमां प्रमाद न थाय एम रहेवुं ए
ज कर्तव्य छे. स्वसमयो अने पर समयो साथे वचनविवाद कर्तव्य नथी.
* * *
‘ज्ञानी परजनसंग छोडी ज्ञाननिधिने भोगवे’
सहज परम तत्त्वज्ञानी, आसन्न भव्य, वैराग्यसंपत्तिवान जीव परमगुरुना
चरणकमळनी उत्तम भक्ति वडे सहज ज्ञाननिधिने पामीने, तेने भोगवे छे; अने
स्वरूपविकळ एवा परजनोना समूहने ध्यानमां विघ्ननुं कारण समजीने तजे छे.
(–नियमसारमांथी)

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प्रकाशक : श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ (सौराष्ट्र)
मुद्रक : मगनलाल जैन अजित मुद्रणालय : सोनगढ (सौराष्ट्र) प्रत : २८००