Atmadharma magazine - Ank 331
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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फोन नं. : ३४ “आत्मधर्म” Regd. No. G. 187
दीर्घसूत्री मनुष्य आत्महितने चूकी जाय छे
दीर्घसूत्री मनुष्यो बाह्य विषयोना अनेक प्रकारे संकल्प–विकल्पो
कर्या करे छे, ने प्रमादथी आत्महितने चूकी जाय छे. पद्मपुराणमां
भामंडलनी मनोवृत्ति तेनुं उदाहरण छे. ते भामंडळ राजा एम विचारे छे
के–में आ शरीरने सुखेथी पाळ्‌युं छे तेथी हजी थोडा दिवस राज्यसुख
भोगवी लउं; कल्याणना कारणरूप एवी चारित्रदशाने पछी धारण करीश.
आ काम–भोग छोडवा कठण छे, तेनाथी मने जे पाप बंधाशे तेने हुं पछी
ध्यान–अग्निवडे पळवारमां भस्म करी नांखीश. –ए प्रकारना मनोरथ
घडतां–घडतां ते भामंडले सेंकडो वर्षो विषयभोगोमां वीतावी
दीधा.....परंतु आयुष्यनो अंत नजीक आवे छे–एनो विचार न कर्यो.
आत्महित पछी करीश पछी करीश–एम करतां, अंते एकाएक वीजळी
पडवाथी ते सातखंडा महेलमां सूतांसूतां ज मरण पाम्यो...प्रमादने कारणे
आत्महित साधी न शक््यो.
–आ रीते दीर्घसूत्री मनुष्य बहारनां अनेक विकल्प करे छे परंतु
पोताना आत्माना उद्धारनो उपाय नथी करतो. विषयतृष्णा पाछळ दोडतो
ते एकक्षण पण चेन पामतो नथी. माथे मृत्यु भमी रह्युं छे–तेनुं तेने
भान नथी. अरे, क्षणभंगुर ईंद्रियविषयोमां लुब्ध थयेलो दुर्बुद्धि जीव
आत्महित करतो नथी, ने अनेकविध कल्पनाओ वडे खराब कर्मोने बांधे
छे. धन, युवानी, जीवन–ए बंधुय अस्थिर छे; तेने अस्थिर जाणी, भिन्न
जाणी तेमां सुखनी कल्पना छोडी, हे जीव! तुं आत्मकल्याण कर. जेथी
तारो आत्मा भवसागरमां न डूबे. हथेलीमां आवेलुं आ मनुष्यरत्न तुं
नकामुं गुमावीश मा. समस्त लौकिक कार्योने निरर्थक जाणी, दुःखरूप
ईन्द्रियविषयोने छोडी परलोक सुधारवा माटे तुं परम श्रद्धापूर्वक
जिनशासनने सेव ने आत्महित कर.
(जुओ, पद्मपुराण पर्व १११)
प्रकाशक : (सौराष्ट्र)
मुद्रक : मगनलाल जैन, अजित मुद्रणालय : सोनगढ (सौराष्ट्र) प्रत : २८००