: अषाढ : र४९७ आत्मधर्म : २५ :
शुं पवनथी कदी मेरूपर्वत हलतो हशे! नहीं; तेम सम्यग्दर्शनमां मेरु जेवा अकंप
सम्यग्द्रष्टि जीवो कुधर्मरूपी पवन वडे जरापण डगता नथी; देव – गुरु – धर्म संबंधी
मूढता तेमने होती नथी; तेओ बराबर ओळखाण करीने साचा वीतरागी देव–गुरु–
धर्मने ज नमे छे.
रेवतीराणीनी आवी द्रढ धर्मश्रद्धा देखीने विद्याधरने घणी प्रसन्नता थई,
अने पोताना असली स्वरूपे प्रगट थईने तेणे कह्युं – हे माता! मने क्षमा करो. चार
दिवस सुधी आ ब्रह्मा, विष्णु, महादेव वगेरेनी ईन्द्रजाळ में ज ऊभी करी हती; गुप्ता
चार्यदेवे तारा सम्यक्त्वनी प्रशंसा करी तेथी तमारी परीक्षा करवा माटे ज में आ बधुं
कर्युं हतुं. अहा! धन्य छे आपनी श्रद्धाने! धन्य छे आपनी अमूढद्रष्टिने! हे माता!
आपना सम्यक्त्वनी प्रशंसापूर्वक श्री गुप्ताचार्यभगवाने आपने माटे धर्मवृद्धिना
‘आशीर्वाद’ मोकलाव्या छे.
अहा! मुनिराजना आशीर्वादनी वात सांभळता ज रेवती राणीने अपार
हर्ष थयो.... हर्षथी गदगद थईने तेणे ए आशीर्वादनो स्वीकार कर्यो; ने जे दिशामां
मुनिराज बिराजता हता ते तरफ सात पगलां जईने परम भक्तिथी मस्तक
नमावीने मुनिराजने परोक्ष नमस्कार कर्यां.
विद्याधर राजाए रेवतीमातानुं घणुं सन्मान कर्युं अने तेनी प्रशंसा करीने
आखी मथुरानगरीमां तेनो महिमा फेलावी दीधो. राजमातानी आवी द्रढश्रद्धा देखीने
अने जिनमार्गनो आवो महिमा देखीने मथुरानगरीना केटलाय जीवो कुमार्ग छोडी
जैनधर्मना भक्त थया, अने घणा जीवोनी श्रद्धा द्रढ थई. आ रीते जैनधर्मनी महान
प्रभावना थई.
[बंधुओ, आ कथा आपणने एम कहे छे के
वीतराग परमात्मा अरिहंतदेवनुं साचुं स्वरूप ओळखो
अने तेमना सिवायना बीजा कोई पण देव – भले साक्षात्
ब्रह्मा – विष्णु – शंकर जेवा देखाता होय तोपण तेने नमो
नहीं. जिनवचनथी विरुद्ध कोई वातने मानो नहीं. भले
आखुं जगत बीजुं माने ने तमे एकला पडी जाओ –
तोपण जिनमार्गनी श्रद्धा छोडो नहीं.]