Atmadharma magazine - Ank 334
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९७ : आत्मधर्म : १ :
वार्षिक वीर सं. २४९७
लवाजम श्रावण
चार रूपिया
AUG. 1971
* वर्ष २८ : अंक १० *
* हुं तो ज्ञाता–द्रष्टा छुं *
[आ आत्मभावना दाहोदना प्रसन्नकुमार महेन्द्रलाल जैने मोकली छे]
अनंत द्रव्यो जगमां वसता... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
निजस्वरूपमां सदाय रहेतो... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
पररूपे तो कदी न थातो... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
स्वयं परिणामी निज भावे... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
नव परिणमावतो हुं कोने... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
स्व–पर तत्त्वनो ज्ञायक एवो... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
निजपरिणतिने निजमां ढाळी... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
अनिष्ट–संयोग के ईष्ट–वियोग हो... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
देहादिकथी भिन्न सदाये... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
रागादिक परभावो जुदा... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
ज्ञायकभावनी श्रद्धा करतो... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
परमसुंदर निजरूप देखतो... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
उपयोगी सदाय साक्षी... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
निज अनंत गुणमां वसनारो... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
गुणी–गुणमां भेद न देखुं... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
ज्ञेय–ज्ञान–ज्ञातारूप एकज... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
सिद्ध स्वरूपी आतमरामी... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
मधुर चैतन्यरसनो स्वादी... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
निजउपयोगे सदाय जीवंत... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.
परम–परिणामिक स्वरूपी... हुं तो ज्ञाता द्रष्टा छुं.