प्रार्थना
शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुति: संगति सर्वदार्ये:
सद्वृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम्;
सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतत्त्वे,
सम्पद्यंतां मम भवभवे यावदेतेऽपवर्ग:।।
जिनेन्द्रभगवाननी पूजा कर्यां बाद
आपणे ईष्ट प्रार्थना करीए छीए के हे देव!
हुं मोक्ष पामुं त्यां सुधी मने सदाय वीतराग
शास्त्रनो अभ्यास हो, जिनवरदेवना
चरणोनुं सदाय सेवन हो, आर्य
सत्पुरुषोनी सदा संगति हो, सदाचारी
पुरुषोना गुणसमुहनी प्रशंसा–कथा हो,
दोषवादमां मौन रहुं एटले के कोईनी निंदा
न करुं; सर्वेजनो प्रत्ये प्रियकारी अने
हितकारी वचनो बोलुं अने निरंतर
आत्मतत्त्वमां भावना करुं,–आटलुं मने
मोक्ष थतां सुधी भवभवमां प्राप्त हो.
बोधि –भावना
हे जिनेन्द्र! तारा चरणो मारा
हृदयमां रहो अने मारुं हृदय तारा बन्ने
चरणोमां लीन रहो;–क्यां सुधी? के
निर्वाणनी प्राप्ति थाय त्यां सुधी.
जगतना बंधु एवा हे जिनवरदेव!
तारा चरणना शरणवडे मने दुःखनो क्षय
थाओ, समाधिमरणनी अने रत्नत्रयरूप
बोधिनी प्राप्ति थाओ.
वाह! केवी सुंदर भावना छे!
मुमुक्षुनी भावना
आ परभावरूपी कीचडथी भरेला संसार–
मांथी छूटवा मुमुक्षुजीव भावना भावे छे–
आगमके अभ्यासमांही पुनि
चित्त एकाग्र सदीव् लगाउं;
संतनिकी संगति तजीके मैं
अंत कहूं ईक क्षिन नहीं जाउं.
दोषवादमें मौन रहूं फिर
पुण्यपुरुष गुण निशदिन गाउं,
रागद्वेष सबहीको टारी,
वीतराग निजभाव बढाउं.
बाहिजद्रष्टि खेंचके अंतर
परमानंद स्वरूप लखाउं;
भागचंद शिवप्राप्त न जोलों
तौलों तुम चरणांबुज ध्याउं.
अब निरभय पद पाया उरमें
सुनकर वाणी जिनवरकी म्हारे
हरष हिये न समायजी....
काल अनाद्रिकी तपन बुझाई
निजनिधि मिलि अघायजी....
संशय भर्म विपर्जय नास्या
सम्यक् बुद्धि उपजायजी....
अब निरभय पद पाया उरमें
वंदूं मन–वच–कायजी....
नरभव सुफल भया अब मेरा
बुधजन भेटंत पायजी....