Atmadharma magazine - Ank 335
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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“हुं पण मुमुक्षुमार्गे जाउं छुं”
१. शरीर तो व्याधिनुं मंदिर छे, आत्मा आनंदनुं मंदिर छे.
२. शरीर करोडो रोगोनुं घर छे, आत्मा अनंत गुणोनुं घर छे.
३. शरीर तो भवनी मूर्ति छे, आत्मा मोक्षनुं धाम छे.
४. शरीरना लक्षे तो कलेश छे, आत्माना लक्षे हिमालय जेवी शांति छे.
५. शरीर तो पुद्गलनो पिंड छे, आत्मा बरफना ढगला जेवी शांतिनो पिंड छे.
६. शरीर तो पुद्गलनी काया छे, आत्मा ज्ञानशरीरी छे.
७. शरीर अशुची अने अस्थिर छे, आत्मा सदा शुद्ध, अविनाशी छे.
८. शरीर मृतककलेवर अचेतन छे, आत्मा सदा चैतन्य–उपयोगमय छे.
९. शरीर कांई स्व–परने नथी जाणतुं, आत्मा स्व–परने जाणनार छे.
१०. शरीरना एकेक अंगुले ९६ रोग छे, आत्माना एकेक प्रदेशे अनंत सुख छे.
–आ रीते काया अने आत्मानी अत्यंत भिन्नताने अनुभवीने,
मारा शुद्ध चैतन्यने भावतो–भावतो हुं मुमुक्षुमार्गे जाउं छुं. शुभ अने अशुभथी
रहित शुद्धचैतन्यनी भावना मारा अनादि संसाररोगनुं उत्तम औषध छे.
* * * * *
क्ष... मा... प... ना...
आत्मधर्मनुं लेखन–संपादन पू. गुरुदेवनी कृपाद्रष्टिमां, मात्र स्व–
परना आत्मार्थनी पुष्टि थाय ए एक ज ध्येयपूर्वक करवामां आवे छे;
हृदयमां देव–गुरु–धर्मनी भक्तिपूर्वक ने साधर्मीप्रेमपूर्वक तेनुं संकलन
करवामां आवे छे. तेम छतां कोई भूलचुक थई होय के कोईनी लागणी
माराथी दुभाई होय, तो अंतरना भावपूर्वक देव–गुरु–धर्म तथा
साधर्मीजनो प्रत्ये क्षमा मांगुं छुं.
– ब्र. ह. जैन.