फोन नं. : ३४ “आत्मधर्म” Regd. No. G. 187
* सोनगढनुं धार्मिक वातावरण *
पवित्र वीतरागी जैनधर्म ज्यां वर्ततो होय, अने आत्मअनुभवी जीवो ज्यां
विचरता होय ते भूमि महान उज्वळ अने तीर्थसमान छे; मोक्षनो मार्ग त्यां जीवंत
छे. अहा, एवा धाममां आत्मानी मुमुक्षुता पुष्ट थाय छे, आत्मानी साधना जागे छे.
आपणुं सोनगढ आवुं ज तीर्थधाम छे; त्यांकनुं वातावरण जैनधर्मनी
वीतरागी सुवासथी मघमघी रह्युं छे....जीवंत मोक्षमार्ग अने तेने साधनारा जीवो त्यां
प्रत्यक्षगोचर थाय छे...श्रीगुरुमुखेथी दररोज मोक्षमार्गनी अने चैतन्यतत्त्वना परम
अचिंत्य महिमानी वात सांभळवा मळे छे. गुरुदेव चैतन्यना परम महिमापूर्वक
वारंवार कहे छे के–भगवान! तारी चीज तारामां परिपूर्ण छे–ते तने बतावी दीधी...
तेने देखीने तुं प्रसन्न था... खुशी था... आनंदित था. सावधान थईने ज्ञायकभावमय
स्वतत्त्वने ज पोतापणे अनुभवमां ले.
अहा! आवा चैतन्यतत्त्वनी प्र्रीतिपूर्वक, बहुमानथी तेनी वात सांभळनार
जीव पण पोताना अंतरमां आत्मप्रेमना एवा बीजडा वावे छे के अल्पकाळमां
तेमांथी धर्मना अंकुरा फूटीने मोक्षनुं मंगल झाड ऊगी नीकळशे.
–आवा अध्यात्मतत्त्वनुं श्रीगुरुमुखे श्रवण, साधर्मी साथे तेनी चर्चा, तेनी
प्रीति अने तेनुं मनन आजे हजारो जीवोमां उल्लासथी चाले छे, ते तो प्रशंसनीय छे.
तदुपरांत अध्यामप्रेमी साधर्मी पाठको प्रत्ये अहीं एटलुं कहेवानुं मन थाय छे के
बंधुओ! एटलेथी न अटकशो, अंदरना परम गंभीर तत्त्वनी स्वानुभूति सुधी
पहोंचजो, ने अतीन्द्रिय आत्मानो पत्तो मेळवजो. आ जीवनमां ज आ कार्य करी
लेवानुं छे, तेमां आळस न थाय, ने ते अधूरुं न रही जाय, ए रीते जागृति राखजो...
एक पण दिवस ए महानकार्यना प्रयत्न वगेरेनो न वीते–एवी श्रीगुरुनी निरंतर
प्रेरणा छे.
– जय जिनेन्द्र
प्रकाशक: (सौराष्ट्र) प्रत : २८००
मुद्रक : मगनलाल जैन, अजित मुद्रणालय : सोनगढ (सौराष्ट्र) भाद्रपद : (३३४)