Atmadharma magazine - Ank 336
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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फोन नं. : ३४ “आत्मधर्म” Regd. No. G. 182
* चैतन्यनी चर्चाना चमकारा *
* ज्ञान जगतनुं शिरताज छे; ज्ञान आनंदनुं धाम छे.
* ज्ञाननी अचिंत्य महानता पासे रागादि परभावोनुं कांई जोर चालतुं नथी, ज्ञानथी
ते सर्वे परभावो जुदा ज रहे छे, बहार ज रहे छे. ज्ञान तो कोई परभावथी न
दबाय एवुं उद्धत छे–महान छे. आवा ज्ञानपणे ज हे जीव! तुं तने चिंतव.
* वाह रे वाह, मोक्षमार्गी संतो! केटलो तमारो महिमा करुं? तमारी चेतनानो अगम
अपार महिमा तो स्वानुभूतिगम्य छे....एवी स्वानुभूतिवडे आपनो सत्यमहिमा
करुं छुं. विकल्प वडे तो आपना महिमानुं माप क्यां थई शके छे?
* स्वानुभूतिनी निर्मळपर्यायरूप मार्गद्वारा हे जीव! तुं तारा चैतन्यना आनंद–
सरोवरमां प्रवेश कर.
* जीवने साचो संतोष त्यारे ज थाय के ज्यारे पोताना परम तत्त्वने, पोतामां ज
देखे.... ने परने पोताथी भिन्न देखे.
* हे जीव! जे काम करवाथी तने आत्मानो आनंद प्राप्त थतो होय–ते कार्य हमणां ज
करी ले; तेमां विलंब न कर.
* तारा उपयोगने तारा अंतरमां लई जा–के तरत ज तने आनंदनी अनुभूति थशे.
आ अनुभूतिना पंथ जगतथी न्यारा छे.
* ‘हुं कोण? ’ ‘हुं’ एटले ज्ञान ने आनंद; हुं एटले राग के शरीर नहीं.–आवी
अर्न्त परिणतिवडे आत्मा प्राप्त थाय छे.
* मारे मारा आत्माना ज्ञानस्वभाव साथे काम छे, बीजा कोई साथे मारे काम नथी.
मारा स्वभावमां ऊंडो उतरीने तेने एकने ज हुं सदाय भावुं छुं, तेनो ज वारंवार
परिचय करुं छुं.
* धर्मीने सर्वज्ञभगवाननो विरह नथी; अंतरना सर्वज्ञस्वभावने ओळखीने पोते
भगवानना मार्गमां आवी गयो छे; भगवानने साक्षात् भेटीने रीझवी लीधा छे.
मुमुक्षुजीवे अंतर्मुख थईने वारंवार क्षणेक्षणे परम महिमापूर्वक शुद्धज्ञाननी सम्यक्
अनुभूति करवा जेवी छे. ते अनुभूतिमां ज साक्षात् भगवाननो भेटो थाय छे.
प्रकाशक : (सौराष्ट्र) प्रत : २८००
मुद्रक : मगनलाल जैन, अजित मुद्रणालय : सोनगढ (सौराष्ट्र) आसो : (३३६)