: २० : आत्मधर्म कारतक: २४९८:
आनंदनो मार्ग तो आवो अद्भुत ज होय ने! जगतने आवा मार्गनुं लक्ष नथी
एटले बहारमां रागना सेवनने मार्ग मानी रह्या छे. बापु! तारो मार्ग रागमां
नथी; तारो मार्ग तो तारा चैतन्यमां समाय छे. चैतन्यमां अगाध गंभीर शांति ने
अनंत गुणना भंडार भर्या छे, तेमां जोतां ज आनंदना दरिया तने देखाशे.
शरीर तो करोडो रोगोनुं घर छे, तेमां क्यांक शांति नथी; ने आ चैतन्यप्रभु आत्मा
अनंत आनंदनुं धाम छे, तेमां क्यांय रोगनुं के अशांतिनुं नामनिशान नथी. आवा
चैतन्यनी सेवा कर. भाई, शरीरनी तो सेवामां अनंता भव वीताव्या ने दुःखी ज
थयो; तो हवे आ भवमां तो शरीरादिथी भिन्न चैतन्यतत्त्वनी सेवा कर, के जेथी
अनंतभवनुं तारुं दुःख मटी जशे ने आत्मानी परम शांतिनुं तने वेदन थशे,
मोक्षना भणकार तारा आत्मामां आवी जशे.
जे जीवो मुक्त थया तेओ कोने भजीने मुक्त थया? –के परमात्माने भजीने मुक्त
थया. क्यां परमात्मा? अंतरमां शुद्ध ज्ञानमय कारणपरमात्मा एवो जे पोतानो
आत्मा, ते परमात्माने सम्यक् रत्नत्रयपरिणति वडे भजीने ते जीवो सिद्ध थया. तुं
पण सिद्धिने माटे तारा परम आत्मतत्त्वने सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रवडे
अभेदपणे भज.
आ रीते रत्नत्रयवडे सिद्धपदने साधनारो मुमुक्षु जीव, बीजा सिद्धभगवंतोना पण
शुद्ध गुणोने ओळखीने तेमनी परमभक्ति करे छे, ते व्यवहार–भक्ति छे. जुओ,
आमां पण शुद्ध गुणोनी ओळखाण सहितनी ज वात लीधी छे.
‘कारणपरमात्माने अभेद रत्नत्रयवडे आराधीने ज तेओ सिद्ध थया’ एम–
ओळखीने तेमनी भक्ति करे छे; पण ‘आ भक्तिना शुभ रागवडे सिद्धपद
पमाशे’ –एम ते मुमुक्षु मानतो नथी. आवी ओळखाणपूर्वक जेटली
शुद्धरत्नत्रय–वीतराग परिणति थई तेटली निश्चयभक्ति छे, ते मुक्तिनुं कारण
छे; तेनी साथे पंचपरमेष्ठीना शुद्ध गुणोनी ओळखाण सहितनी भक्ति ते
व्यवहारभक्ति छे. धर्मी श्रावकने तेमज श्रमणोने आवी बंने प्रकारनी भक्ति
होय छे. तेओ उदयभावोथी ज्ञानचेतनाने अत्यंत जुदी अनुभवे छे, दुःखथी
अत्यंत रहित एवा आनंदथी तेमनुं चित्त भरेलुं छे. सम्यक्त्वादि जे भावो
धर्मीने प्रगट्या छे तेमां भवनो अभाव छे, दुःखनो अभाव छे, उदयभावोनो
भजतो–भजतो मुक्तिने साधे छे, तेथी ते जीव भक्त छे–भक्त छे.