Atmadharma magazine - Ank 337
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४९८ आत्मधर्म : २१ :
परमात्माने दुःख नहीं तेम परमात्मानी साधक पर्यायमां पण दुःख नहीं. जे पर्याय
परभावथी पाछी वळीने परमात्मतत्त्वमां प्रवेशी–तेमां दुःख केवुं? ए तो आनंदना
अनंत सागरमां लीन थई गई. अंतर्मुख परमात्मतत्त्वनो आनंद अंतर्मुख
भावथी ज पमाय छे, तेमां बहुर्मुख भावनो अभाव छे. जे परिणाममां पोताना
चैतन्य परमात्मानो भेटो थयो ते परिणाम वीतरागी जैनशासन छे, ते ज
निश्चयभक्ति छे, ते ज मुक्तिमार्ग छे. वाह रे वाह! संतोए अंतरना मार्ग सुगम
करी दीधा छे.
अंतरमां ऊतरवुं ते एक ज शांतिनो मार्ग छे–एवो द्रढ निर्णय कर्यां वगर
परिणामनुं बहारमां भटकवुं मटशे नहीं. मारो आत्मा ज परम तत्त्व उत्कृष्ट
शांतिनुं धाम छे, –एम पोताना तत्त्वनो कोई अद्भुत अचिंत्य महिमा जाणीने
तेमां परिणाम जोडतां परम शांति वेदाय छे. आत्मानो आवो अद्भुतस्वभाव
जेणे देख्यो ते जीव परभावथी मुक्त थयो; रागादि भावोने पोतानी
चेतनापरिणतिथी अत्यंत जुदा जाण्या; जेवा जगतना बीजा पदार्थो चेतनाथी
बहार छे तेवा ज रागादिभावो पण चेतनाथी बहार छे. आवी चेतनापरिणति ते
परमात्मतत्त्वनी भक्ति–करती–करती (एटले के तेमां एकाग्र थती हती)
आनंदथी मोक्षने साधे छे.
ऊंधाभाव छोडीने आनंदधामां आव
रे जीव! आ जराक दुःख पण ताराथी सहन नथी थतुं, तो
आना करतां महान दुःखो जेनाथी भोगववा पडे एवा अज्ञानमय
ऊंधा भावोने तुं केम सेवी रह्यो छे?
जो तने दुःखनो खरो भय होय तो ते दुःखना कारणरूप
एवा मिथ्यात्वादि ऊंधा भावोने तुं शीघ्र छोड. ने आनंदधाम
एवा निजस्वरूपमां आव.
ज्ञानी संतो पासे आव... ते तने तारुं आनंदधाम देखाडशे.